अथर्ववेद - काण्ड 1/ सूक्त 29/ मन्त्र 5
सूक्त - वसिष्ठः
देवता - अभीवर्तमणिः, ब्रह्मणस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - राष्ट्र अभिवर्धन सूक्त
उद॒सौ सूर्यो॑ अगा॒दुदि॒दं मा॑म॒कं वचः॑। यथा॒हं श॑त्रु॒हो ऽसा॑न्यसप॒त्नः स॑पत्न॒हा ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । अ॒सौ । सूर्य॑: । अ॒गा॒त् । उत् । इ॒दम् । मा॒म॒कम् । वच॑: । यथा॑ । अ॒हम् । श॒त्रु॒ऽह: । असा॑नि । अ॒स॒प॒त्न: । स॒प॒त्न॒ऽहा ॥१.२९.५॥
स्वर रहित मन्त्र
उदसौ सूर्यो अगादुदिदं मामकं वचः। यथाहं शत्रुहो ऽसान्यसपत्नः सपत्नहा ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । असौ । सूर्य: । अगात् । उत् । इदम् । मामकम् । वच: । यथा । अहम् । शत्रुऽह: । असानि । असपत्न: । सपत्नऽहा ॥१.२९.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 29; मन्त्र » 5
विषय - अशत्रु-असपत्न
पदार्थ -
१. (असौ) = वह (सूर्य:) = सूर्य (उद् अगात्) = उदय हुआ है। सूर्योदय के साथ ही (इदम्) = यह (मामकं वच:) = मेरा वचन भी (उद्) = उदित होता है-मैं भी प्रभु के आराधन में तत्पर होता हूँ (यथा) = जिससे कि (अहम्) = मैं (शत्रुहः) = काम, क्रोध, लोभ आदि शत्रुओं का हनन करनेवाला (असानि) = होऊँ। प्रभु का आराधन ही मुझे काम आदि शत्रुओं के पराभव में समर्थ बनाएगा मैं स्वयं तो काम आदि को क्या जीत पाँऊगा? इन्हें पराजित तो प्रभु को ही करना है। २. कामादि के पराभव के साथ मैं (असपत्न:) = सपत्नों से रहित होऊँ-(सपत्नहा) = इन सपत्नों का नाश करनेवाला होऊँ। रोगकृमि ही सपत्न हैं, सूर्य अपनी रश्मियों से इन रोगकृमिरूप सपत्नों को नष्ट करता है। सूर्य-किरणों में प्रभु ने क्या ही अद्भुत शक्ति रक्खी है!
भावार्थ -
सूर्योदय के साथ में प्रभु का आराधन करनेवाला होऊँ। यह मुझे असपत्न व अशत्रु बनाए।
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