अथर्ववेद - काण्ड 1/ सूक्त 29/ मन्त्र 2
सूक्त - वसिष्ठः
देवता - अभीवर्तमणिः, ब्रह्मणस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - राष्ट्र अभिवर्धन सूक्त
अ॑भि॒वृत्य॑ स॒पत्ना॑न॒भि या नो॒ अरा॑तयः। अ॒भि पृ॑त॒न्यन्तं॑ तिष्ठा॒भि यो नो॑ दुर॒स्यति॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि॒ऽवृत्य॑ । स॒ऽपत्ना॑न् । अ॒भि । या: । न॒: । अरा॑तय: ।अ॒भि । पृ॒त॒न्यन्त॑म् । ति॒ष्ठ॒ । अ॒भि । य: । न॒: । दु॒र॒स्यति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अभिवृत्य सपत्नानभि या नो अरातयः। अभि पृतन्यन्तं तिष्ठाभि यो नो दुरस्यति ॥
स्वर रहित पद पाठअभिऽवृत्य । सऽपत्नान् । अभि । या: । न: । अरातय: ।अभि । पृतन्यन्तम् । तिष्ठ । अभि । य: । न: । दुरस्यति ॥
अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 29; मन्त्र » 2
विषय - की आन्तर व बाह्य शत्रुओं का पराभव
पदार्थ -
१. शरीर में सुरक्षित होने पर यह सोम रोग-कृमियों को नष्ट करता है। ये रोग-कृमि इस शरीर के पति बनने की कामना करते हैं, अत: ये हमारे 'सपत्न' कहलाते हैं। इन (सपत्नान्) = हमारे शत्रुभूत रोग-कृमियों को (अभिवृत्य) = आक्रमण के द्वारा पराभूत करके और (या:) = जो (न:) = हमारे प्रति (दुरस्यति) = अशुभ आचरण करता है, उसे भी (अभि) = [वृत्य]-दूर करके (पृतन्यन्तम्) = जो परस्पर सेना से आक्रमण करता है, उसका भी (अभितिष्ठ) = मुकाबला कर-बाह्य शत्रुओं को रोकने के लिए भी हमें शक्तिशाली बना। (य:) = जो (न:) = हमारे प्रति (दुरस्यति) = अशुभ आचरण करता है, उसे भी (अभि) = [वृत्य]-तू दूर करनेवाला हो। २. यह सोम शरीर में होनेवाले रोगों तथा मन में होनेवाली कृपणता आदि वृत्तियों का अभिवर्तन [पराभव करके दूर] करता है, इससे भी इसका नाम 'अभीवर्तमणि' हो गया है। यह 'अभीवर्तमणि' शरीर के रोगों व मन के दोषों को दूर करती है। इसके साथ यह हमें वह तेजस्विता भी प्राप्त कराती है, जिससे कि हम आक्रमण करनेवालों व अशुभ व्यवहार करनेवालों का पराजय कर पाते हैं।
भावार्थ -
यह 'अभीवर्तमणि' हमारे आन्तर व बाह्य शत्रुओं का पराभव करती है।
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