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अथर्ववेद > काण्ड 1 > सूक्त 33

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  • अथर्ववेद - काण्ड 1/ सूक्त 33/ मन्त्र 1
    सूक्त - शन्तातिः देवता - चन्द्रमाः, आपः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - आपः सूक्त

    हिर॑ण्यवर्णाः॒ शुच॑यः पाव॒का यासु॑ जा॒तः स॑वि॒ता यास्व॒ग्निः। या अ॒ग्निं गर्भं॑ दधि॒रे सु॒वर्णा॒स्ता न॒ आपः॒ शं स्यो॒ना भ॑वन्तु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हिर॑ण्यऽवर्णा: । शुच॑य: । पा॒व॒का: । यासु॑ । जा॒त: । स॒वि॒ता । यासु॑ । अ॒ग्नि: । या: । अ॒ग्निम् । गर्भ॑म् । द॒धि॒रे । सु॒ऽवर्णा॑: । ता: । न॒: । आप॑: । शम् । स्यो॒ना: । भ॒व॒न्तु॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हिरण्यवर्णाः शुचयः पावका यासु जातः सविता यास्वग्निः। या अग्निं गर्भं दधिरे सुवर्णास्ता न आपः शं स्योना भवन्तु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    हिरण्यऽवर्णा: । शुचय: । पावका: । यासु । जात: । सविता । यासु । अग्नि: । या: । अग्निम् । गर्भम् । दधिरे । सुऽवर्णा: । ता: । न: । आप: । शम् । स्योना: । भवन्तु ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 33; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. (ता: आपः) = वे जल (नः) = हमारे लिए (शम्) = शान्ति देनेवाले व (स्योना:) = सुखकर (भवन्तु) = हों, (या:) = जो (अग्निं गर्भ दधिरे) = अग्नि को गर्भ में धारण करते हैं, अत: (सुवर्णा:) = बड़े उत्तम वर्णवाले हैं। उत्तम वर्णवाले ही क्या, (हिरण्यवर्णा:) = स्वर्ण के समान चमकते हुए वर्णवाले हैं, (शुचय:) = पवित्र हैं, (पावका:) = हमें पवित्र करनेवाले हैं, (यासु) = जिनमें (सविता) = सूर्य (जात:) =  प्रादुर्भूत हुआ है, अर्थात् ये सूर्य-किरणों के सम्पर्क में आते हैं, (यासु अनि:) = जिनसे अग्नि प्रादुर्भूत हुआ है, अर्थात् जो अग्नि पर रखकर उबाला गया है। २. वही जल हितकर हैं जो [क] सूर्य-किरणों के सम्पर्क में आते हैं [ख] जिनको अग्नि पर गरम कर लिया गया है [ग] जिनमें किसी प्रकार का मल नहीं पड़ गया, अतएव चमकते हैं।

    भावार्थ -

    सूर्य-किरणों के सम्पर्कवाले, अग्नि पर उबाले गये जल हमारे लिए नौरोगता देकर सुखकर हों।

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