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अथर्ववेद - काण्ड 1/ सूक्त 33/ मन्त्र 4
सूक्त - शन्तातिः
देवता - चन्द्रमाः, आपः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - आपः सूक्त
शि॒वेन॑ मा॒ चक्षु॑षा पश्यतापः शि॒वया॑ त॒न्वोप॑ स्पृशत॒ त्वचं॑ मे। घृ॑त॒श्चुतः॒ शुच॑यो॒ याः पा॑व॒कास्ता न॒ आपः॒ शं स्यो॒ना भ॑वन्तु ॥
स्वर सहित पद पाठशि॒वेन॑ । मा॒ । चक्षु॑षा । प॒श्य॒त॒ । आ॒प॒: । शि॒वया॑ । त॒न्वा । उप॑ । स्पृ॒श॒त॒ । त्वच॑म् । मे॒ । घृ॒त॒ऽश्चुत॑: । शुच॑य: । या: । पा॒व॒का: । ता: । न॒: । आप॑: । शम् । स्यो॒ना: । भ॒व॒न्तु॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
शिवेन मा चक्षुषा पश्यतापः शिवया तन्वोप स्पृशत त्वचं मे। घृतश्चुतः शुचयो याः पावकास्ता न आपः शं स्योना भवन्तु ॥
स्वर रहित पद पाठशिवेन । मा । चक्षुषा । पश्यत । आप: । शिवया । तन्वा । उप । स्पृशत । त्वचम् । मे । घृतऽश्चुत: । शुचय: । या: । पावका: । ता: । न: । आप: । शम् । स्योना: । भवन्तु ॥
अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 33; मन्त्र » 4
विषय - शिव जल
पदार्थ -
१. हे (आप:) = जलो! आप (मा) = मुझे (शिवेन चक्षुषा) = कल्याणकर मङ्गलमयी आँख से (पश्यत) = देखो, अर्थात् जल के प्रयोग से मेरी आँखें शिव बनें-मेरी आँखों में किसी प्रकार का विकार न हो। २. हे जलो! आप (शिवया तन्वा) = कल्याणकर शरीर से (मे त्वचम्) = मेरी त्वचा को (उपस्पृशत) = स्पृष्ट करो। जलों का त्वचा पर अभ्यञ्जन [sponging] के प्रकार के किया गया प्रयोग त्वचा को स्निग्ध व नीरोग बनाए। ३. (घृतश्चुत:) = हमारे अन्दर दीसि व नैर्मल्य का क्षरण करनेवाले (शचय:) = पवित्रता को लानेवाली (या:) = जो (पावका:) = मानस भावनाओं को भी पवित्र करनेवाले हैं (ता:) = वे (आपः) = जल (न:) = हमारे लिए (शम्) = शान्ति देनेवाले व (स्योना:) = सुखकर (भवन्तु) = हों।
भावार्थ -
जलों का सुप्रयोग आँखों व त्वचा को सौन्दर्य प्राप्त कराता है। ये जल मलों को दूर करके शरीर को स्वास्थ्य की दीति प्रदान करते हैं, शरीर व मन को पवित्र करते हैं।
विशेष -
यह सुक्त जलों के सुप्रयोग से सुख व शान्ति की प्रासि का वर्णन कर रहा है। यह नीरोग व शान्त जीवनवाला व्यक्ति 'अथर्वा' स्थिर वृत्ति का बनता है और मधुवाली [इक्षु] से प्रेरणा प्राप्त करके अपने जीवन को मधुर बनाने का प्रयत्न करता है।