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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 3/ मन्त्र 11
    सूक्त - अथर्वा देवता - वरणमणिः, वनस्पतिः, चन्द्रमाः छन्दः - भुरिगनुष्टुप् सूक्तम् - सपत्नक्षयणवरणमणि सूक्त

    अ॒यं मे॑ वर॒ण उर॑सि॒ राजा॑ दे॒वो वन॒स्पतिः॑। स मे॒ शत्रू॒न्वि बा॑धता॒मिन्द्रो॒ दस्यू॑नि॒वासु॑रान् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम् । मे॒ । व॒र॒ण: । उर॑सि । राजा॑ । दे॒व: । वन॒स्पति॑: । स: । मे॒ । शत्रू॑न् । वि । बा॒ध॒ता॒म् । इन्द्र॑: । दस्यू॑न्ऽइव । असु॑रान् ॥३.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयं मे वरण उरसि राजा देवो वनस्पतिः। स मे शत्रून्वि बाधतामिन्द्रो दस्यूनिवासुरान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयम् । मे । वरण: । उरसि । राजा । देव: । वनस्पति: । स: । मे । शत्रून् । वि । बाधताम् । इन्द्र: । दस्यून्ऽइव । असुरान् ॥३.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 3; मन्त्र » 11

    पदार्थ -

    १. (अयम्) = यह (मे) = मेरा (वरण:) = रोग एवं वासनारूप शत्रुओं का निवारक वीर्यमणि (राजा) = मेरे जीवन को दीस करनेवाला है, (देव:) = रोगों को जीतने की कामनावाला है। (वनस्पतिः)= संभजनीय तत्त्वों का रक्षक है। (सा) = वह मणि (उरसि) = छाती में उत्पन्न हो जानेवाले (मे शत्रुन्) = मेरे विनाशक रोगरूप शत्रुओं को इसप्रकार (विबाधताम्) = नष्ट करे (इव) = जैसे (इन्द्रः) = एक जितेन्द्रिय पुरुष (दस्यून्) = [दसु उपक्षये] विनाशक (असुरान्) = आसुरभावों को विनष्ट करता है।

    भावार्थ -

    वीर्यमणि का रक्षण सब हृद्रोगों का बाधन करनेवाला है।

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