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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 3/ मन्त्र 16
    सूक्त - अथर्वा देवता - वरणमणिः, वनस्पतिः, चन्द्रमाः छन्दः - भुरिगनुष्टुप् सूक्तम् - सपत्नक्षयणवरणमणि सूक्त

    तांस्त्वं प्र च्छि॑न्द्धि वरण पु॒रा दि॒ष्टात्पु॒रायु॑षः। य ए॑नं प॒शुषु॒ दिप्स॑न्ति॒ ये चा॑स्य राष्ट्रदि॒प्सवः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तान् । त्वम् । प्र । छि॒न्ध्दि॒ । व॒र॒ण॒ । पु॒रा । दि॒ष्टात् । पु॒रा । आयु॑ष: । ये । ए॒न॒म् । प॒शुषु॑ । दिप्स॑न्ति । ये । च॒ । अ॒स्य॒ । रा॒ष्ट्र॒ऽदि॒प्सव॑: ॥३.१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तांस्त्वं प्र च्छिन्द्धि वरण पुरा दिष्टात्पुरायुषः। य एनं पशुषु दिप्सन्ति ये चास्य राष्ट्रदिप्सवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तान् । त्वम् । प्र । छिन्ध्दि । वरण । पुरा । दिष्टात् । पुरा । आयुष: । ये । एनम् । पशुषु । दिप्सन्ति । ये । च । अस्य । राष्ट्रऽदिप्सव: ॥३.१६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 3; मन्त्र » 16

    पदार्थ -

    १. हे (वरण) = शत्रुओं का निवारण करनेवाली वीर्यमणे! (ये एनम्) = जो इस (पशुषु) = शरीरस्थ अग्नियों को (दिप्सन्ति) = हिंसित करना चाहते हैं, (ये च) = और जो (अस्य) = इसके (राष्ट्रदिप्सवः) = शरीररूप राष्ट्र को ही हिसित करना चाहते हैं, (तान्) = उन्हें (त्वम्) = तू (प्रच्छिन्द्धि) = छिन्न-भिन्न कर डाल। (दिष्टात् पुरा) = नियति से पूर्व ही तू उसे समाप्त कर दे, (पुरा आयुष:) = जीवन के पूर्ण होने से पूर्व हो तु उन्हें समाप्त कर दे। २. 'रोग अपना पूरा समय लेकर जाए', इसकी बजाए उसे यह वरणमणि पहले ही समाप्त करनेवाली बने, उसे आरम्भ में ही नष्ट कर दे।

    भावार्थ -

    वीर्यरूप वरणमणि उन रोगों को आरम्भ में ही समाप्त करनेवाली हो जो शरीरस्थ अनिष्टों व शरीर के ही विध्वंस का कारण बनते हैं।

    सूचना -

    यहाँ यह संकेत भी स्पष्ट है कि जिस राष्ट्र में युवक इस वरणमणि का रक्षण करते हैं, उस राष्ट्र को व उस राष्ट्र के पशुओं को शत्रु हिंसित नहीं कर पाते।

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