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अथर्ववेद > काण्ड 15 > सूक्त 3

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  • अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 3/ मन्त्र 2
    सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - साम्नी उष्णिक् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    सोऽब्र॑वीदास॒न्दीं मे॒ सं भ॑र॒न्त्विति॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स: । अ॒ब्र॒वी॒त् । आ॒ऽस॒न्दीम् । मे॒ । सम् । भ॒र॒न्तु॒ । इति॑ ॥३.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सोऽब्रवीदासन्दीं मे सं भरन्त्विति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स: । अब्रवीत् । आऽसन्दीम् । मे । सम् । भरन्तु । इति ॥३.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 3; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १. (सः) = वह व्रात्य विद्वान् (संवत्सरम्) = वर्षभर (कय: अतिष्ठत्) = संसार से मानो ऊपर उठा हुआ ही, अपनी तपस्या में ही स्थित रहा। (तम्) = उसको (देवा:अब्रुवन्) = देववृत्ति के व्यक्तियों ने मिलकर कहा अथवा माता-पिता व आचार्यादि ने (इति) = इसप्रकार कहा कि-हे (व्रात्य) = व्रतमय जीवनवाले विद्धन ! (किम्) = क्या (नु) = अब भी तिष्ठति (इति) = इसप्रकार तपस्या में ही स्थित हुए हो। अब कहीं आश्रम में स्थित होकर लोकहित के दृष्टिकोण से कार्य आरम्भ करो न? २. इसप्रकार देवों के आग्रह पर (स:) = उस व्रात्य ने (इति) = इसप्रकार (अब्रवीत्) = कहा कि मे-मेरे लिए आप आसन्दी संभरन्तु-आसन्दी का संभरण करने की कृपा कीजिए। 'मुझे कहाँ बैठकर कार्य करना चाहिए', उस बात का आप निर्देश कीजिए। ३. यह उत्तर पाने पर सब देवों ने (तस्मै व्रात्याय) = उस व्रात्य के लिए (आसन्दी समभरन) = आसन्दी प्राप्त कराई। वस्तुतः वह आसन्दी क्या थी? सारा काल ही उस आसन्दी के चार चरणों के रूप में था। इस आसन्दी के संभरण का कोई शभ महूर्त थोड़े ही निकालना था। शुभ कार्य के लिए सारा समय ही शुभ है। ४. देवों से प्राप्त कराई गई (तस्याः) = उस आसन्दी के (ग्रीष्मः च वसन्तः च) = ग्रीष्म और वसन्त (ऋतु दौ पादौ आस्ताम्) = दो पाँव थे तथा (शरद च वर्षा च दौ) = शरद और वर्षा दूसरे दो पाये बने। वस्तुत: इस व्रात्य ने न सर्दी देखनी है न गर्मी, न वर्षा न पतझड़। उसने तो सदा ही लोकहित के कार्यों में प्रवृत्त होना है।

    भावार्थ -

    व्रात्य विद्वान् संसार से अलग रहकर तपस्या ही न करता रह जाए। उसे लोकहित के कार्यों को भी अवश्य करना ही चाहिए और इन शुभ कार्यों के लिए मुहूर्त ढूँढने की आवश्यकता नहीं। शुभ कार्य के लिए सारा समय शुभ ही है।

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