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अथर्ववेद > काण्ड 15 > सूक्त 3

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  • अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 3/ मन्त्र 5
    सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - आर्ची बृहती छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    बृ॒हच्च॑ रथंत॒रंचा॑नू॒च्ये॒ आस्तां॑ यज्ञाय॒ज्ञियं॑ च वामदे॒व्यं च॑ तिर॒श्च्ये ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    बृ॒हत् । च॒ । र॒थ॒म्ऽत॒रम् । च॒ । अ॒नू॒च्ये॒ ३॒॑ इति॑ । आस्ता॑म् । य॒ज्ञा॒य॒ज्ञिय॑म् । च॒ । वा॒म॒ऽदे॒व्यम् । च॒ ।‍ ति॒र॒श्च्ये॒३॒॑ इति॑ ॥३.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    बृहच्च रथंतरंचानूच्ये आस्तां यज्ञायज्ञियं च वामदेव्यं च तिरश्च्ये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    बृहत् । च । रथम्ऽतरम् । च । अनूच्ये ३ इति । आस्ताम् । यज्ञायज्ञियम् । च । वामऽदेव्यम् । च ।‍ तिरश्च्ये३ इति ॥३.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 3; मन्त्र » 5

    पदार्थ -

    १. व्रात्य की इस आसन्दी के (बृहत् च रथन्तरं च) = हृदय की विशालता और शरीर-रथ से भवसागर को तैरने की भावना ही (अनूच्ये आस्ताम्) = दाएँ-बाएँ की लकड़ी की दो पाटियाँ थीं (च) = तथा (यज्ञायज्ञियं च वामदेव्यं च) = यज्ञों के लिए हितकर वेदज्ञान तथा सुन्दर दिव्यगुणों के लिए हितकर प्रभु का उपासन ही (तिरश्च्ये) = दो तिरछे काठ सेरुवे थे। २. (ऋच:) = ऋचाएँ प्रकृतिविज्ञान के मन्त्र ही उस आसन्दी के (प्राञ्चः तन्तवः) = लम्बे फैले हुए तन्तु थे और (यजूंषि) = यज्ञ-प्रतिपादक मन्त्र ही (तिर्यञ्च:) = तिरछे फैले हुए तन्तु थे। (वेदः) = ज्ञान ही उस आसन्दी का (आस्तरणम्) = बिछौना था, (ब्रह्म) = तप [ब्रह्म: तप:] व तत्त्वज्ञान ही (उपबर्हणम्) = तकिया [सिर रखने का सहारा] था। (साम) = उपासना-मन्त्र व शान्तभाव ही (आसादः) = उस आसन्दी में बैठने का स्थान था और (उदगीथ:) = उच्यैः गेय 'ओम्' इसका (उपश्रयः) = सहारा था [टेक थी]। ३. (ताम्) = इस ज्ञानमयी (आसन्दीम्) = आसन्दी पर (व्रात्यः आरोहत्) = व्रात्य ने आरोहण किया।

    भावार्थ -

    व्रात्य जिस आसन्दी पर आरोहण करता है वह ज्ञान व उपासना की बनी हुई है। उपासना से शक्ति प्राप्त करके व ज्ञान से मार्ग का दर्शन करके वह लोकहित के कार्यों में आसीन होता है-तत्पर होता है।

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