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अथर्ववेद > काण्ड 15 > सूक्त 3

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  • अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 3/ मन्त्र 11
    सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - विराट् गायत्री छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    विश्वा॑न्ये॒वास्य॑ भू॒तान्यु॑प॒सदो॑ भवन्ति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विश्वा॑नि । ए॒व । अ॒स्य॒ । भू॒तानि॑ । उ॒प॒ऽसद॑: । भ॒व॒न्ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥३.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्वान्येवास्य भूतान्युपसदो भवन्ति य एवं वेद ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विश्वानि । एव । अस्य । भूतानि । उपऽसद: । भवन्ति । य: । एवम् । वेद ॥३.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 3; मन्त्र » 11

    पदार्थ -

    १. (तस्य) = उस ब्रात्य के (देवजना:) = माता-पिता-आचार्यादि देव (परिष्कन्दा: आसन्) = चारों ओर गति करनेवाले रक्षक होते हैं। इनके रक्षण में यह अपना लोकहित का कार्य उत्तमता से कर पाता है। (संकल्पा:) = उस-उस कार्य को करने के संकल्प इसके (प्रहाय्या:) = दूत होते है। इन संकल्पों के द्वारा यह अपने कार्यों को करने में समर्थ होता है। (विश्वानि भूतानि) = सब प्राणी (उपसदः) = इसके समीप बैठनेवाले होते हैं-इसी की शरण में जाते हैं, इसे ही वे अपना सहारा मानते हैं। २. (य:) = जो भी व्रात्य (एवं वेद) = इसप्रकार समझ लेता है कि उसका जीवनलक्ष्य 'भूतहित' ही है, (अस्य) = इसके (विश्वानि एव भूतानि) = सभी प्राणी (उपसदः भवन्ति) = समीप आसीन होनेवाले होते हैं।

    भावार्थ -

    लोकहित में प्रवृत्त व्रात्य को 'माता-पिता-आचार्य' आदि देवों का रक्षण प्राप्त होता है। संकल्पों द्वारा यह अपने सन्देश को दूर तक पहुँचाने में समर्थ होता है और सब प्राणी इसकी शरण में आते हैं।

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