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अथर्ववेद > काण्ड 16 > सूक्त 3

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  • अथर्ववेद - काण्ड 16/ सूक्त 3/ मन्त्र 4
    सूक्त - आदित्य देवता - प्राजापत्या त्रिष्टुप् छन्दः - ब्रह्मा सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त

    वि॑मो॒कश्च॑मा॒र्द्रप॑विश्च॒ मा हा॑सिष्टामा॒र्द्रदा॑नुश्च मा मात॒रिश्वा॑ च॒ माहा॑सिष्टाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒ऽमो॒क: । च॒ । मा॒ । आ॒र्द्रऽप॑वि: । च॒ । मा । हा॒सि॒ष्टा॒म् । आ॒र्द्रऽदा॑नु: । च॒ । मा॒ । मा॒त॒रिश्वा॑ । च॒ । मा । हा॒सि॒ष्टा॒म् ॥३.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विमोकश्चमार्द्रपविश्च मा हासिष्टामार्द्रदानुश्च मा मातरिश्वा च माहासिष्टाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विऽमोक: । च । मा । आर्द्रऽपवि: । च । मा । हासिष्टाम् । आर्द्रऽदानु: । च । मा । मातरिश्वा । च । मा । हासिष्टाम् ॥३.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 16; सूक्त » 3; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    १. (विमोकः च) = काम-क्रोधादि शत्रुओं से छुटकारा (च) = और (आर्द्रपवि:) = शत्ररूधिर से क्लिन्न वज्र (मा) = मुझे (मा हासिष्टाम्) = मत छोड़ जाएँ, अर्थात् मैं काम आदि से सदा मुक्त रहूँ और अपने क्रियाशीलतारूप वज्र के द्वारा शत्रुओं का संहार करनेवाला बनूं। २. (आर्द्रपवि: च) = स्नेहाई हृदय से युक्त दानवृत्ति (च) = और (मातरिश्वा) = वेदमाता में गति व वृद्धि, अर्थात् वेद की प्रेरणा के अनुसार कार्यों को करते हुए उन्नत होना (मा) = मुझे (मा हासिष्टाम्) = मत छोड़ जाएँ। मैं दानवृत्ति व वेदानुकूल आचरण को अपनानेवाला बनूं।

    भावार्थ - 'काम-क्रोध आदि शत्रुओं से छुटकारा', "क्रियाशीलतारूप व्रज द्वारा शन्नुसंहार', 'स्नेहपूर्वक दानवृत्ति', तथा 'वेदानुकूल आचरण' ये बातें सदा मेरे जीवन में हों।

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