अथर्ववेद - काण्ड 16/ सूक्त 4/ मन्त्र 1
सूक्त - आदित्य
देवता - साम्नी अनुष्टुप्
छन्दः - ब्रह्मा
सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त
नाभि॑र॒हंर॑यी॒णां नाभिः॑ समा॒नानां॑ भूयासम् ॥
स्वर सहित पद पाठनाभि॑: । अ॒हम् । र॒यी॒णाम् । नाभि॑: । स॒मा॒नाना॑म् । भू॒या॒स॒म् ॥४.१॥
स्वर रहित मन्त्र
नाभिरहंरयीणां नाभिः समानानां भूयासम् ॥
स्वर रहित पद पाठनाभि: । अहम् । रयीणाम् । नाभि: । समानानाम् । भूयासम् ॥४.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 16; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
विषय - नाभिः
पदार्थ -
१. (अहम्) = मैं (रयीणाम्) = सब ऐश्वर्यों का (नाभि:) = अपने में बांधनेवाला बनुं। इसीप्रकार (समानानाम्) = अपने समान जातिवालों का भी (नाभिः भूयासम्) = केन्द्र बन पाऊँ। उन सबमें मैं श्रेष्ठ बनें। सब मुझे ही नेता के रूप में देखें।
भावार्थ - हम सब कोशों के ऐश्वयों का सम्पादन करते हुए अपने वर्ग में श्रेष्ठतम स्थान में पहुँचने के लिए यत्नशील हों।
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