अथर्ववेद - काण्ड 16/ सूक्त 8/ मन्त्र 30
सूक्त - दुःस्वप्ननासन
देवता - यजुर्ब्राह्मी एकपदा अनुष्टुप्,त्रिपदा निचृत गायत्री
छन्दः - यम
सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त
जि॒तम॒स्माक॒मुद्भि॑न्नम॒स्माक॑मृ॒तम॒स्माकं॒ तेजो॒ऽस्माकं॒ ब्रह्मा॒स्माकं॒स्वर॒स्माकं॑य॒ज्ञो॒ऽस्माकं॑ प॒शवो॒ऽस्माकं॑ प्र॒जा अ॒स्माकं॑ वी॒राअ॒स्माक॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठजि॒तम् । अ॒स्माक॑म् । उ॒त्ऽभि॑न्नम् । अ॒स्माक॑म् । ऋ॒तम् । अ॒स्माक॑म् । तेज॑: । अ॒स्माक॑म् । ब्रह्म॑ । अ॒स्माक॑म् । स्व᳡: । अ॒स्माक॑म् । य॒ज्ञ: । अ॒स्माक॑म् । प॒शव॑: । अ॒स्माक॑म् । प्र॒ऽजा: । अ॒स्माक॑म् । वी॒रा: । अ॒स्माक॑म् ॥८.३०॥
स्वर रहित मन्त्र
जितमस्माकमुद्भिन्नमस्माकमृतमस्माकं तेजोऽस्माकं ब्रह्मास्माकंस्वरस्माकंयज्ञोऽस्माकं पशवोऽस्माकं प्रजा अस्माकं वीराअस्माकम् ॥
स्वर रहित पद पाठजितम् । अस्माकम् । उत्ऽभिन्नम् । अस्माकम् । ऋतम् । अस्माकम् । तेज: । अस्माकम् । ब्रह्म । अस्माकम् । स्व: । अस्माकम् । यज्ञ: । अस्माकम् । पशव: । अस्माकम् । प्रऽजा: । अस्माकम् । वीरा: । अस्माकम् ॥८.३०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 16; सूक्त » 8; मन्त्र » 30
विषय - शारीर 'रोगरूप' शत्रुओं का प्रतीकार
पदार्थ -
१. हम विजय आदि दशों रत्नों को प्राप्त करें। इसी उद्देश्य से शरीर में उत्पन्न हो जानेवाले रोगरूप शत्रुओं को नष्ट करें। (सः) = वह रोगरूप शत्रु (वनस्पतीनां) = वनस्पतियों के (पाशात्) = पाशों से (मा मोचि) = मत मुक्त हो, अर्थात् बनस्पतियों का प्रयोग इन रोगों के नाश का कारण बने। (सः) = वह रोग (वानस्पत्यानाम्) = वनस्पति से प्राप्त पदार्थों के (पाशात् मा मोचि) = पाश से मत मुक्क हो, अर्थात् वानस्पत्य भोजनों को करते हुए हम रोगों का शिकार न हों। २. (सः) = वह रोग (ऋतूनाम्) = ऋतुओं के (पाशात्) = पाश से (मा मोचि) = मत मुक्त हो। ऋतुचर्या का ठीक से पालन हमें रोगाक्रान्त होने से बचाए। (सः) = बह रोग (आर्तवानाम्) = उस-उस ऋतु में होनेवाले पदार्थों के (पाशात् मा मोचि) = पाश से मत मुक्त हो। हम ऋतु के पदार्थों का प्रयोग करते हुए नीरोग बने रहें। ३. (सः) = वह व्याधि (मासानां) = मासों के (पाशात् मा मोचि) = पाश से मत मुक्त हो। इसीप्रकार (सः) = वह (अर्थमासानां) = अर्धमासों [पक्षों] के (पाशात् मा मोचि) = पाश से मत मुक्त हो। उस उस मास व पक्ष के अनुसार अपनी चर्या को करते हुए हम नौरोग बनें। ४. (सः) = यह रोग (अहोरात्र्यो:) = दिन-रात के (पाशात् मा मोचि) = पाश से मत मुक्त हो। (सः) = वह संयतो (अह्नो:) = [be formed in rows] क्रम में स्थित दिनों के (पाशात्) = पाश से (मा मोचि) = मत मुक्त हो। 'दिन के बाद रात और रात के बाद दिन' इसप्रकार दिन-रात चलते ही रहते हैं। दिन कार्य के लिए है और रात्रि आराम के लिए। इनके व्यवहार के ठीक होने पर रोगों से बचाव रहता है। यह 'काम और आराम' का क्रम टूटते ही रोग आने लगते हैं। 'रात्री जागरणं रूक्षं स्निग्धं प्रस्वपनं दिवा'। ५. (सः) = वह रोग (द्यावापृथिव्यो:) = द्यावापृथिवी के (पाशात् मा मोचि) = पाश से मत मुक्त हो। 'द्यावा' मस्तिष्क है, 'पृथिवी' शरीर है। हम इन्हें क्रमशः दीप्त व दृढ़ बनाएँ और इसप्रकार नीरोग जीवनवाले हों। (सः) = वह रोग (इन्द्राग्न्यो:) = इन्द्र और अग्नि के (पाशात् मा मोचि) = पाश से मत मुक्त हो। 'इन्द्र' जितेन्द्रियता का प्रतीक है, 'अग्नि' प्रगति का। जितेन्द्रियता व प्रगतिशीलता हमें नीरोग बनाएँ। (सः) = वह (मित्रावरुणयो:) = मित्र और वरुण के (पाशात् मा मोचि) = पाश से मत मुक्त हो। हम मित्र-स्नेहवाले व वरुण-निष बनकर रोगों के शिकार होने से बचें। (सः) = वह रोग राज्ञः वरुणस्य-राजा वरुण के (पाशात् मा मोचि) = पाश से मत मुक्त हो। 'राजा' का भाव है-व्यवस्थित जीवनवाला [well regulated] और अतएव वरुण-श्रेष्ठ व्यक्ति रोगों का शिकार नहीं होता। ६. (सः) = वह रोग (मृत्यो पड्बीशात्) = मृत्यु के पादबन्धनरूप (पाशात् मा मोचि) = पाश से मत मुक्त हो। जब हम इस बात को भूलते नहीं कि 'यस्त्वा मृत्युरभ्यधत्त जायमानं सुपाशया'। हमें पैदा होने के साथ ही मृत्यु उत्तम पाशों से जकड़ लेती है तो हम युक्ताहार-विहार करते हुए स्वस्थ बने रहते हैं और उन्नतिपथ पर आगे बढ़ते हैं।
भावार्थ - नीरोग बनने का मार्ग यह है कि [क] हम वानस्पतिक पदार्थों का ही सेवन करें। [ख] ऋतुचर्या का ध्यान करें। [ग] प्रत्येक मास व पक्ष का ध्यान करते हुए हमारा खान पान हो। [घ] दिन में सोएँ नहीं, रात्रि में जागें नहीं। [ङ] मस्तिष्क और शरीर दोनों का ध्यान करें। [च] जितेन्द्रिय व प्रगतिशील हों। [छ] स्नेह व निषता को अपनाएँ। [ज] व्यवस्थित जीवनवाले हों। [झ] मृत्यु को न भूल जाएँ।
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