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अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 1/ मन्त्र 3
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - यज्ञः, चन्द्रमाः
छन्दः - पङ्क्तिः
सूक्तम् - यज्ञ सूक्त
रू॒पंरू॑पं॒ वयो॑वयः सं॒रभ्यै॑नं॒ परि॑ ष्वजे। य॒ज्ञमि॒मं चत॑स्रः प्र॒दिशो॑ वर्धयन्तु संस्रा॒व्येण ह॒विषा॑ जुहोमि ॥
स्वर सहित पद पाठरू॒पम्ऽरू॑पम्। वयः॑ऽवयः। स॒म्ऽरभ्य॑। ए॒न॒म्। परि॑। स्व॒जे॒। य॒ज्ञम्। इ॒मम्। चत॑स्रः। प्र॒ऽदिशः॑। व॒र्ध॒य॒न्तु॒। स॒म्ऽस्रा॒व्ये᳡ण। ह॒विषा॑। जु॒हो॒मि॒ ॥१.३॥
स्वर रहित मन्त्र
रूपंरूपं वयोवयः संरभ्यैनं परि ष्वजे। यज्ञमिमं चतस्रः प्रदिशो वर्धयन्तु संस्राव्येण हविषा जुहोमि ॥
स्वर रहित पद पाठरूपम्ऽरूपम्। वयःऽवयः। सम्ऽरभ्य। एनम्। परि। स्वजे। यज्ञम्। इमम्। चतस्रः। प्रऽदिशः। वर्धयन्तु। सम्ऽस्राव्येण। हविषा। जुहोमि ॥१.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
विषय - रूपंरूपं, वय:वयः
पदार्थ -
१. मानव-जीवन में कभी हमारा स्वरूप एक ब्रह्मचारी का, पुनः गृहस्थ का, तदनन्तर एक वानप्रस्थ का होता है। आयु के दृष्टिकोण से भी हमारा 'बाल्यकाल, यौवन व वार्धक्य' होता है। मैं (रूपंरूपम्) = उस-उस रूप को और (वयः वयः) = उस-उस आयुष्य को (संरभ्य) = ग्रहण करके (एनं परिष्वजे) = इस यज्ञ का आलिङ्गन करता हूँ। यज्ञ तो हमें सदा करना ही है, चाहे हम किसी रूप में हों या किसी भी आयुष्य की अवस्था में हों। २. (चतस्त्रः प्रदिश:) = चारों विस्तृत दिशाएँ इन दिशाओं में रहनेवाले लोग (इमं यज्ञम्) = इस यज्ञ को (वर्धयन्तु) = बढ़ाएँ-स्वयं भी यज्ञशील हों। (संस्त्राव्येण हविषा) = सब वस्तुओं की ठीक गति की साधनभूत (हविषा) = हवि के द्वारा (जुहोमि) = मैं आहुति देता हूँ-मैं यज्ञशील बनता हूँ।
भावार्थ - हम जीवन की किसी भी स्थिति में हों, आयु की किसी भी श्रेणी में हो, यज्ञ हमारे लिए आवश्यक है। सब लोग इस यज्ञ का वर्धन करनेवाले हों। 'यज्ञाद् भवति पर्जन्य:' के अनुसार यज्ञों से ठीक वृष्टि होकर हमें उत्तम जलों की प्राप्ति होती है। ये जल नदियों में प्रवाहित होकर 'सिन्धु' कहलाते हैं [स्यन्दन्ते]। स्नान व पान के रूप में दो प्रकार से जलों का यह प्रयोक्ता 'सिन्धुढीप' है [द्विर्गता: आपो यस्मिन्] । इस 'सिन्धु द्वीप' का ही अगला सूक्त है -
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