Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 10

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 10/ मन्त्र 5
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - मन्त्रोक्ताः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - शान्ति सूक्त

    शं नो॒ द्यावा॑पृथि॒वी पू॒र्वहू॑तौ॒ शम॒न्तरि॑क्षं दृ॒शये॑ नो अस्तु। शं न॒ ओष॑धीर्व॒निनो॑ भवन्तु॒ शं नो॒ रज॑स॒स्पति॑रस्तु जि॒ष्णुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शम्। नः॒। द्यावा॑पृथि॒वी इति॑। पू॒र्वऽहू॑तौ। शम्। अ॒न्तरि॑क्षम्। दृ॒शये॑। नः॒। अ॒स्तु॒। शम्। नः॒। ओष॑धीः। व॒निनः॑। भ॒व॒न्तु॒। शम्। नः॒। रज॑सः। पतिः॑। अ॒स्तु॒। जि॒ष्णुः॒ ॥१०.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शं नो द्यावापृथिवी पूर्वहूतौ शमन्तरिक्षं दृशये नो अस्तु। शं न ओषधीर्वनिनो भवन्तु शं नो रजसस्पतिरस्तु जिष्णुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शम्। नः। द्यावापृथिवी इति। पूर्वऽहूतौ। शम्। अन्तरिक्षम्। दृशये। नः। अस्तु। शम्। नः। ओषधीः। वनिनः। भवन्तु। शम्। नः। रजसः। पतिः। अस्तु। जिष्णुः ॥१०.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 10; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    १. (पूर्वहूतौ) = सबसे प्रथम पुकार में (द्यावापृथिवी) = द्युलोक व पृथिवीलोक (नः शम्) = हमारे लिए शान्तिकर हों। हम प्रातः प्रभु से सर्वप्रथम यही आराधना करते हैं कि ये धुलोक और पृथिवीलोक हमें शान्ति प्राप्त कराएँ। (अन्तरिक्षम्) = यह अन्तरिक्ष भी (दृशये) = विशाल दृष्टि के लिए (न: शम् अस्तु) = हमारे लिए शान्तिकर हो। हम अन्तरिक्ष से मध्यमार्ग में चलने की प्रेरणा लेते हुए विशाल दृष्टिकोणवाले बनें । २. ये (वनिन:) = वन में उत्पन्न होनेवाली (ओषधीः) = ओषधियाँ (नः शम्) = हमारे लिए शान्तिकर (भवन्तु) = हों। वह (रजसस्पति:) = सब लोकों का स्वामी (जिष्णु:) = विजयशील प्रभु (नः शम् अस्तु) = हमारे लिए शान्तिकर हो। हम भी शरीरस्थ अंगों के स्वामी बनते हुए विजयशील बनें। यही सच्ची शान्ति की प्राप्ति का मार्ग है।

    भावार्थ - द्यावापृथिवी, अन्तरिक्ष व ओषधियाँ-ये सब हमें शान्ति प्राप्त कराएँ। रजसस्पति जिष्णु' प्रभु से हम भी शरीरस्थ अंगों के स्वामी बनने तथा विजयशील बनने की प्रेरणा लें।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top