अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 5
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - मन्त्रोक्ताः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - शान्ति सूक्त
74
शं नो॒ द्यावा॑पृथि॒वी पू॒र्वहू॑तौ॒ शम॒न्तरि॑क्षं दृ॒शये॑ नो अस्तु। शं न॒ ओष॑धीर्व॒निनो॑ भवन्तु॒ शं नो॒ रज॑स॒स्पति॑रस्तु जि॒ष्णुः ॥
स्वर सहित पद पाठशम्। नः॒। द्यावा॑पृथि॒वी इति॑। पू॒र्वऽहू॑तौ। शम्। अ॒न्तरि॑क्षम्। दृ॒शये॑। नः॒। अ॒स्तु॒। शम्। नः॒। ओष॑धीः। व॒निनः॑। भ॒व॒न्तु॒। शम्। नः॒। रज॑सः। पतिः॑। अ॒स्तु॒। जि॒ष्णुः॒ ॥१०.५॥
स्वर रहित मन्त्र
शं नो द्यावापृथिवी पूर्वहूतौ शमन्तरिक्षं दृशये नो अस्तु। शं न ओषधीर्वनिनो भवन्तु शं नो रजसस्पतिरस्तु जिष्णुः ॥
स्वर रहित पद पाठशम्। नः। द्यावापृथिवी इति। पूर्वऽहूतौ। शम्। अन्तरिक्षम्। दृशये। नः। अस्तु। शम्। नः। ओषधीः। वनिनः। भवन्तु। शम्। नः। रजसः। पतिः। अस्तु। जिष्णुः ॥१०.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सृष्टि के पदार्थों से उपकार लेने का उपदेश।
पदार्थ
(पूर्वहूतौ) पहिले बुलावे [अर्थात् कार्य के आरम्भ में] (द्यावापृथिवी) सूर्य और भूमि (नः) हमें (शम्) शान्तिदायक हों, (अन्तरिक्षम्) मध्यलोक [मध्यवर्ती अवकाश] (दृशये) देखने के लिये (नः) हमें (शम्) शान्तिदायक (अस्तु) हो। (ओषधीः) ओषधियाँ [अन्न सोमलता आदि] और (वनिनः) वन के पदार्थ (नः) हमें (शम्) शान्तिदायक (भवन्तु) हों (रजसः) लोक का (पतिः) स्वामी (जिष्णुः) विजयी मनुष्य (नः) हमें (शम्) शान्तिदायक (अस्तु) हो ॥५॥
भावार्थ
कार्य के आरम्भ में मनुष्य विचार लें कि सूर्य और भूमि के कारण से ग्रीष्म, वर्षा, शीत आदि ऋतुएँ अनुकूल हों, आकाश निर्मल हो, अन्न आदि पदार्थ पुष्कल हों, जिससे मनोरथ सिद्धि में विजय प्राप्त हो ॥५॥
टिप्पणी
५−(शम्) शान्तिप्रदौ (नः) अस्मभ्यम् (द्यावापृथिवी) सूर्यभूमिलोकौ (पूर्वहूतौ) प्रथमाह्वाने। कार्यारम्भे (शम्) (अन्तरिक्षम्) मध्यवर्त्यवकाशः (दृशये) दर्शनाय (नः) (अस्तु) (शम्) (नः) (ओषधीः) अन्नसोमलतादयः (वनिनः) वने भवाः पदार्थाः (भवन्तु) (शम्) (नः) (रजसः) लोकस्य (पतिः) पालकः पुरुषः (अस्तु) (जिष्णुः) विजयी ॥
विषय
द्यावापृथिवी
पदार्थ
१. (पूर्वहूतौ) = सबसे प्रथम पुकार में (द्यावापृथिवी) = द्युलोक व पृथिवीलोक (नः शम्) = हमारे लिए शान्तिकर हों। हम प्रातः प्रभु से सर्वप्रथम यही आराधना करते हैं कि ये धुलोक और पृथिवीलोक हमें शान्ति प्राप्त कराएँ। (अन्तरिक्षम्) = यह अन्तरिक्ष भी (दृशये) = विशाल दृष्टि के लिए (न: शम् अस्तु) = हमारे लिए शान्तिकर हो। हम अन्तरिक्ष से मध्यमार्ग में चलने की प्रेरणा लेते हुए विशाल दृष्टिकोणवाले बनें । २. ये (वनिन:) = वन में उत्पन्न होनेवाली (ओषधीः) = ओषधियाँ (नः शम्) = हमारे लिए शान्तिकर (भवन्तु) = हों। वह (रजसस्पति:) = सब लोकों का स्वामी (जिष्णु:) = विजयशील प्रभु (नः शम् अस्तु) = हमारे लिए शान्तिकर हो। हम भी शरीरस्थ अंगों के स्वामी बनते हुए विजयशील बनें। यही सच्ची शान्ति की प्राप्ति का मार्ग है।
भावार्थ
द्यावापृथिवी, अन्तरिक्ष व ओषधियाँ-ये सब हमें शान्ति प्राप्त कराएँ। रजसस्पति जिष्णु' प्रभु से हम भी शरीरस्थ अंगों के स्वामी बनने तथा विजयशील बनने की प्रेरणा लें।
भाषार्थ
(पूर्वहूतौ) प्रातःकाल की प्रथम-उपासना में परमेश्वरीय सहायता के आह्वान में हम प्रार्थना करते हैं कि (द्यावापृथिवी) द्युलोक और पृथिवीलोक (नः) हमें (शम्) शान्ति और सुख के देनेवाले हों; (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष (नः दृशये) हमारी दृष्टि के लिए (शम् अस्तु) शान्ति और सुख देनेवाला हो, अर्थात् अन्तरिक्ष कोहरे तथा अन्धकार और अन्धेरी के कारण हमारी दृष्टि का विघातक न हो। (ओषधीः) ओषधियाँ और (वनिनः) वनों के वृक्ष (नः) हमें (शम्) शान्तिदायक और सुखदायक (भवन्तु) हों। (रजसः पतिः) मनोरञ्जक-भूलोक का एकाधिपति (जिष्णुः) सदा विजयी होकर (नः) हम प्रजाजनों को (शम्) शान्तिदायक और सुखदायक हो।
विषय
सुख शान्ति का वर्णन।
भावार्थ
(द्यावापृथिवी) द्यौ और पृथिवी, आकाश और भूमि (पूर्वहूतौ) सबसे पूर्व समस्त पदार्थों को प्रदान करने में (नः शम्) हमें शान्तिदायक हों। (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष, मध्यमलोक, वातावरण भी (दृशये) हमारे दर्शन शक्ति को स्वतन्त्र व्यापार के लिये (शम् नः अस्तु) हमें कल्याणकारी हो। अन्तरिक्ष स्वच्छ रहे कि हम दूर दूर तक देख सकें। (ओषधीः) ओषधियें (वनिनः) सेवन करने योग्य होकर (नः शं भवन्तु) हमें शान्तिदायक हों। (रजसः पतिः) लोकों का पालक सूर्य और सूर्य के समान तेजस्वी (जिष्णुः) विजयशील राजा (नः शम् अस्तु) हमें शान्तिदायक हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शान्तिकामो ब्रह्मा ऋषिः। सोमो देवता। निष्टुमः। दशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Shanti
Meaning
May the heaven and earth ever invoked and adored bring us peace. May the firmament be full of peace for our appreciation of the beauty of the lights of stars. May the herbs and trees and the grandeur of forest abodes be for our peace. And may the victor sustainer of space and spatial particles be for our peace and well¬ being.
Translation
May the heaven and earth, invoked from the earliest times, be for our happiness; may the midspace be for our happiness with charming appearance. May the herbs and the forest trees be for our happiness; may the victorious Lord of the distant regions, be favourable to our felicity. (Rg. VII.35.5)
Translation
May the electricity and earth serve our benefit in our graceful. attainments, may the space between heaven and earth helping visibility be auspicious for us, may the medicinal plants and trees of forest be wholesome for us, may the victorious administrator of the land be the source of our happiness.
Translation
May the constellations and the earth, the first to shelter blessings on the people, both be auspicious to us. May the atmosphere be agreeable to us for seeing things clearly. May the herbs of the forest be comfort-giving to us. May the victorious lord of the worlds, the Sun be peaceful for us.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५−(शम्) शान्तिप्रदौ (नः) अस्मभ्यम् (द्यावापृथिवी) सूर्यभूमिलोकौ (पूर्वहूतौ) प्रथमाह्वाने। कार्यारम्भे (शम्) (अन्तरिक्षम्) मध्यवर्त्यवकाशः (दृशये) दर्शनाय (नः) (अस्तु) (शम्) (नः) (ओषधीः) अन्नसोमलतादयः (वनिनः) वने भवाः पदार्थाः (भवन्तु) (शम्) (नः) (रजसः) लोकस्य (पतिः) पालकः पुरुषः (अस्तु) (जिष्णुः) विजयी ॥
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