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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 10 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 6
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - मन्त्रोक्ताः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - शान्ति सूक्त
    65

    शं न॒ इन्द्रो॒ वसु॑भिर्दे॒वो अ॑स्तु॒ शमा॑दि॒त्येभि॒र्वरु॑णः सु॒शंसः॑। शं नो॑ रु॒द्रो रु॒द्रेभि॒र्जला॑षः॒ शं न॒स्त्वष्टा॒ ग्नाभि॑रि॒ह शृ॑णोतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शम्। नः॒। इन्द्रः॑। वसु॑ऽभिः। दे॒वः। अ॒स्तु॒। शम्। आ॒दि॒त्येभिः॑। वरु॑णः। सु॒ऽशंसः॑। शम्। नः॒। रु॒द्रः। रु॒द्रेभिः॑। जला॑षः। शम्। नः॒। त्वष्टा॑। ग्नाभिः॑। इ॒ह। शृ॒णो॒तु॒ ॥१०.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शं न इन्द्रो वसुभिर्देवो अस्तु शमादित्येभिर्वरुणः सुशंसः। शं नो रुद्रो रुद्रेभिर्जलाषः शं नस्त्वष्टा ग्नाभिरिह शृणोतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शम्। नः। इन्द्रः। वसुऽभिः। देवः। अस्तु। शम्। आदित्येभिः। वरुणः। सुऽशंसः। शम्। नः। रुद्रः। रुद्रेभिः। जलाषः। शम्। नः। त्वष्टा। ग्नाभिः। इह। शृणोतु ॥१०.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 10; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    सृष्टि के पदार्थों से उपकार लेने का उपदेश।

    पदार्थ

    (देवः) प्रकाशमान (इन्द्रः) सूर्य (वसुभिः) अनेक धनों वा किरणों से (नः) हमें (शम्) शान्तिदायक (अस्तु) हो, (सुशंसः) उत्तम गुणवाला (वरुणः) जल (आदित्येभिः) सूर्य के किरणों के साथ (शम्) शान्तिदायक हो। (जलाषः) जीवों की अभिलाषा पूरी करनेहारा (रुद्रः) ज्ञानदाता परमेश्वर (रुद्रेभिः) ज्ञानदाता मुनियों द्वारा (नः) हमें (शम्) शान्तिदायक हो, (शम्) शान्तिदायक (त्वष्टा) विश्वकर्मा जगदीश्वर (ग्नाभिः) [हमारी] वाणियों द्वारा (इह) यहाँ पर (नः) हमारी [प्रार्थना] (शृणोतु) सुने ॥६॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य सूर्य वा प्रकाश और जलादि की विद्या में निपुण होके परमात्मा के ज्ञान को प्राप्त होते हैं, वे सदा सुख पाते हैं ॥६॥

    टिप्पणी

    ६−(शम्) शान्तिप्रदः (नः) अस्मभ्यम् (इन्द्रः) सूर्यः (वसुभिः) धनैः। किरणैः (देवः) प्रकाशमानः (अस्तु) (शम्) (आदित्येभिः) आदित्य-ण्य। आदित्यकिरणैः (वरुणः) जलसमूहः (सुशंसः) उत्तमगुणयुक्तः (शम्) (नः) (रुद्रः) रुतो ज्ञानस्य राता दाता (रुद्रेभिः) ज्ञानदातृभिर्मुनिभिः (जलाषः) जनी जनने ड+लष वाञ्छायाम्-घञ्। जानां जातानां लषो वाञ्छा यस्मात् सः (शम्) (नः) अस्माकं प्रार्थनाम् (त्वष्टा) विश्वकर्मा सर्वकर्ता (ग्नाभिः) वाग्भिः-निघ० १।११ (इह) अस्मिन् विषये (शृणोतु) आकर्णयतु ॥

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    विषय

    वसु, आदित्य, रुद्र

    पदार्थ

    १. (इन्द्रः देवः) = वह परमैश्वर्यशाली दिव्यगुणों का पुञ्ज प्रभु (वसुभि:) = हमारे निवासों को उत्तम बनानेवाले वसु विद्वानों के द्वारा (न:) = हमारे लिए (शम् अस्तु) = शान्ति प्राप्त करानेवाले हों। (सशंसः) = उत्तम ज्ञान देनेवाले (वरुण:) = पापों के निवारक प्रभु (आदित्येभिः) = सूर्यसम ज्ञानज्योतिर्मय विद्वानों के द्वारा (शम्) = शान्ति प्राप्त कराएँ। २. [जलाषम् Happiness] (जलाष:) = आनन्दमय रुद्र:-सब रोगों का विद्रावण करनेवाले प्रभु रुद्रेभिः ज्ञानोपदेश द्वारा हमें नीरोगता के मार्ग पर ले-चलनेवाले विद्वानों के द्वारा नः शम्-हमें शान्ति दें। त्वष्टा-[त्विषेर्वा स्याद् दीप्तिकर्मणः । नि०] ज्ञानदीप्त प्रभु (ग्नाभि:) = ज्ञान की बाणियों के द्वारा (नः शम्) = हमें शान्ति प्राप्त कराएँ, ये प्रभु (इह) = यहाँ शृणोतु हमारी इस प्रार्थना को सुनें।

    भावार्थ

    प्रभु वसु, रुद्र व आदित्य विद्वानों के द्वारा ज्ञान प्राप्त कराके हमें 'जितेन्द्रिय, निर्दोष, आनन्दमय य ज्ञानदीस' बनाकर शान्त जीवनवाला बनाएँ।

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    भाषार्थ

    (देवः) दिव्यगुणों वाला (इन्द्रः) इन्द्र पदवी का आचार्य (वसुभिः) २४ वर्षों तक किये ब्रह्मचर्य वाले वसु ब्रह्मचारियों द्वारा (नः) हमें (शम्) शान्तिदायक और सुखदायक (अस्तु) हो। (जलाषः) जलवत् शान्तिदायक (रुद्रः) रुद्रपदवी का आचार्य (रुद्रेभिः) ३६ वर्षों तक किये ब्रह्मचर्य वाले रुद्र ब्रह्मचारियों द्वारा (नः) हमें (शम्) शान्तिदायक और सुखदायक हो। (सुशंसः) पदार्थों के गुणधर्मों का यथार्थ कथन करनेवाला सुप्रशंसनीय (वरुणः) वरुणपदवी का आचार्य (आदित्येभिः) ४८ वर्षों तक किये ब्रह्मचर्य वाले आदित्य ब्रह्मचारियों द्वारा हमें (शम्) शान्तिदायक तथा सुखदायक हो। (त्वष्टा) संसार के रूपों और आकृतियों का रचयिता कारीगर परमेश्वर (ग्नाभिः) वेदवाणियों द्वारा की गई हमारी प्रार्थनाओं को (इह) हमारे इन्हीं जीवनों में (शृणोतु) सुन ले, और (नः) हमें (शम्) शान्तिदायक हो।

    टिप्पणी

    [अथर्ववेद के ब्रह्मचर्यसूक्त (११.५) में ब्रह्मचारी और आचार्य का वर्णन हुआ है। ब्रह्मचर्यसूक्त के मन्त्र ११.५.१६ द्वारा प्रतीत होता है कि “इन्द्र” चतुर्थाश्रमी आचार्य है। मन्त्र निम्नलिखित है। यथा— आचार्यो ब्रह्मचारी ब्रह्मचारी प्रजापतिः। प्रजापतिर्वि राजति विराडिन्द्रोऽभवद् वशी॥ अभिप्राय यह कि— “आचार्य को पहिले ब्रह्मचारी होना चाहिए। ब्रह्मचारी के पश्चात् वह प्रजापति अर्थात् गृहस्थी होना चाहिए। प्रजापति के पश्चात् उसे विराट् अर्थात् सब प्रकार की गार्हस्थ्य दीप्तियों और शोभाओं से विगत होकर वनस्थ होना चाहिए। विराट् अर्थात् वनस्थ के पश्चात् वशी अर्थात् इन्द्रियों और मन पर पूर्ण विजयी होकर वह इन्द्र पदवी को पाए”। ऐसी इन्द्रपदवी का व्यक्ति वसु ब्रह्मचारियों का आचार्य बने। बाल्यकाल से लेकर वसुकाल तक ब्रह्मचारी ने चरित्रनिर्माण करना है। अतः इस काल के ब्रह्मचारीयों के आचार्यों को “वशी इन्द्र” कहा है। रुद्र ब्रह्मचारी ३६ वर्ष के होते हैं। इनके आचार्य को मन्त्र में रुद्र कहा है। मन्त्र में रुद्र का विशेषण है—“जलाषः”। जलाषम्=उदकम् (निघं० १.१२)। रुद्र संहारकारी है। मृत्यु भी संहारकारी है। इसलिए अथर्व० ११.५.१४ में आचार्य को “मृत्यु” भी कहा है। जलाष अर्थात् उदक शान्तिदायक है। रुद्र ब्रह्मचारियों के आचार्य को रुद्र, तथा जलाष दो रूपोंवाला होना चाहिए। वह समय पर रुद्र भी हो, और समय पर जलाष भी हो। ४८ वर्षों के आदित्य ब्रह्मचारियों के आचार्य को “वरुण” कहा। अथर्व० ११.५.१४ में आचार्य को “वरुण” भी कहा है। वरुण का अर्थ है वरणीय। उच्च कोटि के ब्रह्मचारी अपने-अपने विषय की दृष्टि से अपने-अपने आचार्यों का स्वयं वरण करें। ये आचार्य “सुशंसः” अर्थात् अपने-अपने विषय के उत्तम-प्रवक्ता होने चाहिएँ। “त्वष्टा” पद द्वारा परमेश्वर का वर्णन हुआ है। त्वष्टा का अर्थ है—कारीगर, जो कि नानाविध रूपों का निर्माण करता है। त्वष्टा= त्विषेर्वा स्याद् दीप्तिकर्मणः, त्वक्षते र्वा स्यात् करोतिकर्मणः (निरु० ८.२.१४)। त्वष्टा के सम्बन्ध में निम्नलिखित मन्त्र विशेष प्रकाश डालता है। यथा—“य इमे द्यावापृथिवी जनित्री रूपैरपिंशत् भुवनानि विश्वा। तमद्य होतरिषितो यजीयान् देवं त्वष्टारमिह यक्षि विद्वान्” (ऋ० १०.११०.९)।]

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    विषय

    सुख शान्ति का वर्णन।

    भावार्थ

    (देवः) प्रकाशमान, तेजोमय, ऐश्वर्यवान् सूर्य (वसुभिः) प्राणियों को अपने में बसाने में समर्थ पृथिवी आदि लोक, वायु पर्जन्य यदि वसु पदार्थों सहित (नः शम्) हमें शान्तिदायक (अस्तु) हो अथवा (देवः) देव=राजा (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् होकर (वसुभिः) वसु विद्वान् शासकों के साथ हमें शान्तिदायक हो और इन्द्र आत्मा वसुरूप प्राणों सहित हमें शान्तिदायक हो। (वरुणः) सबके वरण करने योग्य, राजा (आदित्येभिः) आदित्य के समान तेजस्वी पुरुषों के साथ (सुशंसः) उत्तम रीति से स्तुति करने योग्य, उत्तम गुणों से युक्त होकर बारह मासों सहित सूर्य के या पर्जन्य के समान (शम् अस्तु) हमें कल्याणकारी हो। (रुद्रः) सब दुष्टों को रुलाने वाले, दुष्ट दमनकारी पुरुष—सिंह (रुद्रेभिः) दुष्टों को रुलाने में समर्थ अन्य अधिकारियों सहित (जलाषः) सुखकारी होकर (नः शम्) हमें शान्तिदायक हो। (त्वष्टा) सर्वस्रष्टा परमेश्वर (ग्नाभिः) अपनी व्यापक दिव्य शक्तियों सहित (नः) हमारे लिये (शम्) शान्तिप्रद हो और (इह) इस लोक में हमारी सब प्रार्थनायें (शृणोतु) श्रवण करे। अध्यात्म में—आत्मा या पुरुष की तीन दशा हैं वयः क्रम से व्रत पालन में इन्द्र, वरुण और रुद्र उनके व्रत से परिपक्व हुए प्राणों के तीन नाम हैं वसुगण, आदित्यगण और रुद्रगण। त्वष्टा, कर्त्ता, आत्मा उसकी ज्ञानशक्तियां ‘ग्ना’ हैं। अथवा त्वष्टा शिल्पी अपनी (ग्नाभिः) गमनशील, अति वेगवती विद्युत्, कला, यन्त्र आदि वैज्ञानिक शक्तियों सहित हमें सुख शान्ति दे। इन्द्र=राजा, वरुण जलाध्यक्ष, आदित्य, पानी खींचने के यन्त्र रुद्र, वैद्य, रुद्रगण=ओषधियां।

    टिप्पणी

    (च०) ‘त्वष्टा अग्नाभिः’ इति पदपाठश्चिन्त्यः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शान्तिकामो ब्रह्मा ऋषिः। सोमो देवता। निष्टुमः। दशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Shanti

    Meaning

    May Indra, self-refulgent generous sun, with the Vasus, abodes of life sustenance, be for our peace. May Varuna, adorable cosmic waters, with rays of the sun in the zodiacs, be full of peace for us. May Rudra, cosmic life force, saviour from suffering, with its pranic energies, be for our peace and well being. May Tvashta, formative power of the cosmic soul, with its fiery vitalities be for our peace and well being and be responsive to our invocation and adoration here.

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    Translation

    May the divine sun, with the life-giving elements, grant us happiness; may the justly-praised ethereal ocean with numerous suns, be friendly to our happiness; may the grief-assuaging cosmic vitality, with the vital breaths, bless us for our happiness; may the architect of the universe, with attributes of Nature’s bounties, be with us for our happiness, and hear us at this solemnity. (Rg. VII.35.6)

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    Translation

    May the brilliant sun with earth moon etc. be auspicious for us, may the laudable water with the twelve months of the year be auspicious for us, may the Peaceful Lord of the universe punishing evil-doers with all His administrative powers be favorable to us, may the persons of wisdom by their instructive speeches give peaceful audience to us.

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    Translation

    May the radiant Sun along with other Vasus be peaceful to us. May the well-praised water along with the rays of the Sun throughout the year be tranquillising to us. May the soul, the fulfiller of all desires with other Rudras, vital breaths be peaceful to us. May the engineer hear us calmly with electric waves of high frequency, here at our residence.

    Footnote

    The last portion of the verse gives clear indication of the telephone or the radio-broadcasts etc.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(शम्) शान्तिप्रदः (नः) अस्मभ्यम् (इन्द्रः) सूर्यः (वसुभिः) धनैः। किरणैः (देवः) प्रकाशमानः (अस्तु) (शम्) (आदित्येभिः) आदित्य-ण्य। आदित्यकिरणैः (वरुणः) जलसमूहः (सुशंसः) उत्तमगुणयुक्तः (शम्) (नः) (रुद्रः) रुतो ज्ञानस्य राता दाता (रुद्रेभिः) ज्ञानदातृभिर्मुनिभिः (जलाषः) जनी जनने ड+लष वाञ्छायाम्-घञ्। जानां जातानां लषो वाञ्छा यस्मात् सः (शम्) (नः) अस्माकं प्रार्थनाम् (त्वष्टा) विश्वकर्मा सर्वकर्ता (ग्नाभिः) वाग्भिः-निघ० १।११ (इह) अस्मिन् विषये (शृणोतु) आकर्णयतु ॥

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