अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 15/ मन्त्र 4
उ॒रुं नो॑ लो॒कमनु॑ नेषि वि॒द्वान्त्स्वर्यज्ज्योति॒रभ॑यं स्व॒स्ति। उ॒ग्रा त॑ इन्द्र॒ स्थवि॑रस्य बा॒हू उप॑ क्षयेम शर॒णा बृ॒हन्ता॑ ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒रुम्। नः॒। लो॒कम्। अनु॑। ने॒षि॒। वि॒द्वान्। स्वः᳡। यत्। ज्योतिः॑। अभ॑यम्। स्व॒स्ति। उ॒ग्रा। ते॒। इ॒न्द्र॒। स्थवि॑रस्य। बा॒हू इति॑। उप॑। क्ष॒ये॒म॒। श॒र॒णा॒। बृ॒हन्ता॑ ॥१५.४॥
स्वर रहित मन्त्र
उरुं नो लोकमनु नेषि विद्वान्त्स्वर्यज्ज्योतिरभयं स्वस्ति। उग्रा त इन्द्र स्थविरस्य बाहू उप क्षयेम शरणा बृहन्ता ॥
स्वर रहित पद पाठउरुम्। नः। लोकम्। अनु। नेषि। विद्वान्। स्वः। यत्। ज्योतिः। अभयम्। स्वस्ति। उग्रा। ते। इन्द्र। स्थविरस्य। बाहू इति। उप। क्षयेम। शरणा। बृहन्ता ॥१५.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 15; मन्त्र » 4
विषय - 'सुख, प्रकाश, निर्भयता व कल्याण' वाला लोक
पदार्थ -
१.(विद्वान) = ज्ञानमय प्रभु! (न:) = हमें (उरुं लोकम् अनुनेषि) = क्रमश: विशाललोक में ले-चलते हैं। हमें उत्तम प्रेरणा देते हुए विशाललोक को प्राप्त कराते हैं। (यत्) = जो लोक (स्व:) = सुखवाला है, (ज्योति:) = प्रकाशमय है, (अभयम्) = भयरहित है तथा (स्वस्ति:) = उत्तम कल्याणमयी स्थितिवाला है। २. हे (इन्द्र) = शत्रुविद्रावक प्रभो! (स्थविरस्य) = सनातन पुरुष (ते) = तेरी (बाहु) = भुजाएँ (उग्रा) = अतिशयेन तेजस्विनी हैं। हम इन (बृहन्ता) = विशाल व हमारी वृद्धि की कारणभूत (शरणा) = हमारा आश्रय बननेवाली भुजाओं की छत्रछाया में ही (उपक्षयेम) = निवास करें।
भावार्थ - प्रभु हमें सतत प्रेरणा देते हुए 'विशाल सुख, प्रकाश, निर्भयता व कल्याण' वाले लोक में ले-चलते हैं। हम प्रभु की भुजाओं की छाया में ही निवास करें। ये भुआएँ ही हमारी सर्वमहान् शरण हैं।
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