अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 15/ मन्त्र 6
अभ॑यं मि॒त्रादभ॑यम॒मित्रा॒दभ॑यं ज्ञा॒तादभ॑यं पु॒रो यः। अभ॑यं॒ नक्त॒मभ॑यं दिवा नः॒ सर्वा॒ आशा॒ मम॑ मि॒त्रं भ॑वन्तु ॥
स्वर सहित पद पाठअभ॑यम्। मि॒त्रात्। अभ॑यम्। अ॒मित्रा॑त्। अभ॑यम्। ज्ञा॒तात्। अभ॑यम्। पु॒रः। यः। अभ॑यम्। नक्त॑म्। अभ॑यम्। दिवा॑। नः॒। सर्वाः॑। आशाः॑। मम॑। मि॒त्रम्। भ॒व॒न्तु॒ ॥१५.६॥
स्वर रहित मन्त्र
अभयं मित्रादभयममित्रादभयं ज्ञातादभयं पुरो यः। अभयं नक्तमभयं दिवा नः सर्वा आशा मम मित्रं भवन्तु ॥
स्वर रहित पद पाठअभयम्। मित्रात्। अभयम्। अमित्रात्। अभयम्। ज्ञातात्। अभयम्। पुरः। यः। अभयम्। नक्तम्। अभयम्। दिवा। नः। सर्वाः। आशाः। मम। मित्रम्। भवन्तु ॥१५.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 15; मन्त्र » 6
विषय - 'मित्र व अमित्र' सभी से अभय
पदार्थ -
१. (मित्रात् अभयम्) = मित्र से हमें अभय हो। (अमित्रात् अभयम्) = शत्रु से अभय प्राप्त हो। (ज्ञातात्) = ज्ञात-परिचित से (अभयम्) = अभय हो और (परोक्षात्) = जो परोक्ष है, उससे भी (न:) = हमें (अभयम्) = अभय हो। २. (नक्तम् अभयम्) = रात्रि में अभय हो। (न:) = हमारे लिए दिवा-दिन में (अभयम्) = अभय हो। (सर्व: आशा:) = सब दिशाएँ मम मेरी (मित्रं भवन्तु) = मित्र हों।
भावार्थ - मित्र-अमित्र, परिचित व अपरिचित सभी से हमें अभय हो। रात व दिन में हमें सदा अभय हो। सब दिशाओं में सर्वत्र हमें स्नेह प्राप्त हो।
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