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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 15

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 15/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - इन्द्रः छन्दः - पथ्या बृहती सूक्तम् - अभय सूक्त

    यत॑ इन्द्र॒ भया॑महे॒ ततो॑ नो॒ अभ॑यं कृधि। मघ॑वञ्छ॒ग्धि तव॒ त्वं न॑ ऊ॒तिभि॒र्वि द्विषो॒ वि मृधो॑ जहि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यतः॑। इ॒न्द्र॒। भया॑महे। ततः॑। नः॒। अभ॑यम्। कृ॒धि॒। मघ॑ऽवन्। श॒ग्धि। तव॑। त्वम्। नः॒। ऊ॒तिऽभिः॑। वि। द्विषः॑। वि। मृधः॑। ज॒हि॒ ॥१५.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत इन्द्र भयामहे ततो नो अभयं कृधि। मघवञ्छग्धि तव त्वं न ऊतिभिर्वि द्विषो वि मृधो जहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यतः। इन्द्र। भयामहे। ततः। नः। अभयम्। कृधि। मघऽवन्। शग्धि। तव। त्वम्। नः। ऊतिऽभिः। वि। द्विषः। वि। मृधः। जहि ॥१५.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 15; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    १.हे इन्द्र-सब शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो! हम (यतः भयामहे) = जहाँ से भी भय का अनुभव करते हैं, (तत:) = वहाँ से (न:) = हमें (अभयं कृधि) = निर्भय कीजिए। २. हे (मघवन्) = ऐश्वर्यशालिन् प्रभो! (शग्धि) = आप ही शक्तिशाली हैं, आप ही हमें अभय कर सकते हैं। (त्वम्) = आप (तव ऊतिभि:) = आपके रक्षणों के द्वारा (न:) = हमारे (विद्विषः) = विद्वेष करनेवालों को तथा (मधः) = [murder] हत्या करनेवाले शत्रुओं को (विजहि) = सुदूर विनष्ट कीजिए।

    भावार्थ - प्रभु हमें अभय करें। हमारे द्वेषी शत्रुओं को सुदूर विनष्ट करें।

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