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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 16

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 16/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - मन्त्रोक्ताः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अभय सूक्त

    अ॑सप॒त्नं पु॒रस्ता॑त्प॒श्चान्नो॒ अभ॑यं कृतम्। स॑वि॒ता मा॑ दक्षिण॒त उ॑त्त॒रान्मा॑ शची॒पतिः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स॒प॒त्नम्। पु॒रस्ता॑त्। प॒श्चात्। नः॒। अभ॑यम्। कृ॒त॒म्। स॒वि॒ता। मा॒। द॒क्षि॒ण॒तः। उ॒त्त॒रात्। मा॒। शची॒ऽपतिः॑ ॥१६.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    असपत्नं पुरस्तात्पश्चान्नो अभयं कृतम्। सविता मा दक्षिणत उत्तरान्मा शचीपतिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    असपत्नम्। पुरस्तात्। पश्चात्। नः। अभयम्। कृतम्। सविता। मा। दक्षिणतः। उत्तरात्। मा। शचीऽपतिः ॥१६.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 16; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    १. (न:) = हमारे लिए (पुरस्तात्) = सामने से (असपत्नम्) = शत्रराहित्य (कृतम्) = किया जाए और (पश्चात्) = पोछे से [न:] हमारे लिए (अभयं कृतम्) = निर्भयता प्राप्त कराई जाए। २. सविता वह सर्वप्रेरक प्रभु (मा) = मुझे (दक्षिणत:) = दक्षिण से रक्षित करे तथा (शचीपति:) = सब शक्तियों व प्रज्ञानों का स्वामी प्रभु मुझे (उत्तरात्) = उत्तर से बचाये।

    भावार्थ - हमें पूर्व से शत्रुराहित्य प्राप्त हो तो पश्चिम से निर्भयता मिले । दक्षिण से सविता मेरा रक्षक हो तो उत्तर से शचीपति मेरा रक्षण करे।

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