अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 23/ मन्त्र 27
सूक्त - अथर्वा
देवता - मन्त्रोक्ताः
छन्दः - दैवी त्रिष्टुप्
सूक्तम् - अथर्वाण सूक्त
वि॑षास॒ह्यै स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒ऽस॒स॒ह्यै। स्वाहा॑ ॥२३.२७॥
स्वर रहित मन्त्र
विषासह्यै स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठविऽससह्यै। स्वाहा ॥२३.२७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 23; मन्त्र » 27
विषय - विषासहि-मंगलिक-ब्रह्मा
पदार्थ -
१. (विषासहौ) = वेदज्ञान द्वारा सब शत्रुओं का पराभव करनेवाली इस गृहिणी के लिए हम (स्वाहा) = प्रशंसात्मक शब्द कहते हैं। इससे सब गृहिणियों को 'विषासहि' बनने की प्रेरणा प्राप्त होती है। २. (मंगलिकेभ्यः स्वाहा) = वेदज्ञान द्वारा सदा यज्ञ आदि मंगल कार्यों को करनेवाले पुरुषों के लिए हम प्रशंसात्मक शब्द कहते हैं। इससे सभी को इन मंगल कार्यों को करने की प्रवृत्ति प्राप्त होती है। ३. अन्ततः हम (ब्रह्मणे) = इन चारों वेदों का ज्ञान प्राप्त करनेवाले सर्वोत्तम सात्त्विक पुरुष के लिए शुभ शब्द कहते हैं और स्वयं ऐसा बनने का ही अपना लक्ष्य बनाते हैं।
भावार्थ - वेदज्ञान से हम शत्रुओं का मर्षण करनेवाले, मंगल कार्यों को करनेवाले व सर्वोत्तम सात्त्विक स्थिति की ओर बढ़नेवाले बनते हैं।
इस भाष्य को एडिट करें