अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 23/ मन्त्र 20
सूक्त - अथर्वा
देवता - मन्त्रोक्ताः
छन्दः - दैवी त्रिष्टुप्
सूक्तम् - अथर्वाण सूक्त
ए॑क॒र्चेभ्यः॒ स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठए॒क॒ऽऋ॒चेभ्यः॑। स्वाहा॑ ॥२३.२०॥
स्वर रहित मन्त्र
एकर्चेभ्यः स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठएकऽऋचेभ्यः। स्वाहा ॥२३.२०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 23; मन्त्र » 20
विषय - अज्ञान विध्वंस व प्रभु-दर्शन
पदार्थ -
१. [कडि भेदने संरक्षणे च] (महत्काण्डाय) = महान् अविद्या का भेदन करनेवाले व हमारा संरक्षण करनेवाले वेदज्ञान के लिए (स्वाहा) = मैं अपना अर्पण करता हूँ। २. (तचेभ्य:) = 'जीव, प्रकृति, परमात्मा' अथवा 'ज्ञान, कर्म, उपासना' तीनों का प्रतिपादन करनेवाले इन मन्त्रों के लिए (स्वाहा) = अपना अर्पण करता हैं। ३. (एकर्चेभ्य:) = उस एक अद्वितीय प्रभु की महिमा का स्तवन करनेवाले मन्त्रों के लिए (स्वाहा) = मैं अपना अर्पण करता हूँ। उनके पढ़ने के लिए यत्नशील होता हूँ। [शुदिर संपेषणे] (क्षद्रेभ्यः) = अविद्यान्धकार का संपेषण करनेवाले इन वेदमन्त्रों के लिए स्वाहा-मैं अपना अर्पण करता हूँ। ५. (एकानृचेभ्यः स्वाहा) = [नास्ति ऋक्-स्तुत्याविद्याः-यस्य सकाशात् स: 'अनृच'] उस ब्रह्मविद्या का वर्णन करनेवाली अनुत्तम [सर्वोत्तम] ऋचाओं के लिए मैं अपने को अर्पित करता हूँ।
भावार्थ - अज्ञान के विध्वंसक वेदमन्त्रों का अध्ययन करते हुए हम उस अद्वितीय प्रभु को जानने के लिए यत्नशील होते हैं।
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