अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 24/ मन्त्र 5
सूक्त - अथर्वा
देवता - मन्त्रोक्ताः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - राष्ट्रसूक्त
ज॒रां सु ग॑च्छ॒ परि॑ धत्स्व॒ वासो॒ भवा॑ गृष्टी॒नाम॑भिशस्ति॒पा उ॑। श॒तं च॒ जीव॑ श॒रदः॑ पुरू॒ची रा॒यश्च॒ पोष॑मुप॒संव्य॑यस्व ॥
स्वर सहित पद पाठज॒राम्। सु। ग॒च्छ॒। परि॑। ध॒त्स्व॒। वासः॑। भव॑। गृ॒ष्टी॒नाम्। अ॒भि॒श॒स्ति॒ऽपाः। ऊं॒ इति॑। श॒तम्। च॒। जीव॑। श॒रदः॑। पु॒रू॒चीः। रा॒यः। च॒। पोष॑म्। उ॒प॒ऽसंव्य॑यस्व ॥२४.५॥
स्वर रहित मन्त्र
जरां सु गच्छ परि धत्स्व वासो भवा गृष्टीनामभिशस्तिपा उ। शतं च जीव शरदः पुरूची रायश्च पोषमुपसंव्ययस्व ॥
स्वर रहित पद पाठजराम्। सु। गच्छ। परि। धत्स्व। वासः। भव। गृष्टीनाम्। अभिशस्तिऽपाः। ऊं इति। शतम्। च। जीव। शरदः। पुरूचीः। रायः। च। पोषम्। उपऽसंव्ययस्व ॥२४.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 24; मन्त्र » 5
विषय - गृष्टी-रक्षण
पदार्थ -
१. हे मनुष्य। तू (जरां सुगच्छ) = जरावस्था तक सम्यक् चल-युवावस्था में ही तेरा अन्त न हो जाए। (वासः परिधत्स्व) = ज्ञान-वस्त्र को तू धारण कर और इसप्रकार (गृष्टीनाम्) = इन इन्द्रियरूप गौओं का तू (उ) = निश्चय से अभिशस्तिपा भव-हिंसन से रक्षण करनेवाला हो। ये इन्द्रिरूप गौएँ विषयरूप व्यानों से हिंसित न हो जाएँ। ज्ञान की तलवार से तू इन व्याघ्रों का हिंसन कर २. (च) = और (पुरूची:) = [पुरु अञ्च] पूरण व पालक खूब ही गतिवाली (शतं शरदः) = सौ शरद् ऋतुओं तक तू जीव-जीनेवाला हो (च) = तथा (रायः पोषम्) = ज्ञान के पोषण को उपसव्ययस्व अपने जीवन में सीनेवाला बन [व्ये-to sew], तुझे पोषक धन की कभी कमी न हो।
भावार्थ - ज्ञान-वस्त्र को धारण करके हम दीर्घजीवनवाले बनें, इन्द्रियरूप गौओं को विषय व्यात्रों का शिकार न होने दें। गतिशील १०० शरद ऋतुओं तक जीएँ। पोषक धन को प्राप्त करें।
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