अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 24/ मन्त्र 1
सूक्त - अथर्वा
देवता - मन्त्रोक्ताः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - राष्ट्रसूक्त
येन॑ दे॒वं स॑वि॒तारं॒ परि॑ दे॒वा अधा॑रयन्। तेने॒मं ब्र॑ह्मणस्पते॒ परि॑ रा॒ष्ट्राय॑ धत्तन ॥
स्वर सहित पद पाठयेन॑। दे॒वम्। स॒वि॒तार॑म्। परि॑। दे॒वाः। अधा॑रयन्। तेन॑। इ॒मम्। ब्र॒ह्म॒णः॒। प॒ते॒। परि॑। रा॒ष्ट्राय॑। ध॒त्त॒न॒ ॥२४.१॥
स्वर रहित मन्त्र
येन देवं सवितारं परि देवा अधारयन्। तेनेमं ब्रह्मणस्पते परि राष्ट्राय धत्तन ॥
स्वर रहित पद पाठयेन। देवम्। सवितारम्। परि। देवाः। अधारयन्। तेन। इमम्। ब्रह्मणः। पते। परि। राष्ट्राय। धत्तन ॥२४.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 24; मन्त्र » 1
विषय - देव-देव का धारण-आत्मशासन
पदार्थ -
१. इस सूक्त का देवता 'ब्रह्मणस्पति' है-ज्ञान का रक्षक। यह ज्ञान हमें अपने पर शासन करने के योग्य बनाता है। इसप्रकार इस ज्ञान को यहाँ 'वास:' कहा गया है, चूंकि यह हमें आच्छादित करता हुआ पापों से बचाता है। इसी से अन्ततः देवपुरुष प्रभु को अपने बदयों में धारण करते हैं। (येन) = जिस ज्ञान से (देवाः) = देववृत्ति के व्यक्ति उस (सवितारम्) = सर्वोत्पादक सर्वप्रेरक (देवम्) = प्रकाशमय प्रभु को (परि अधारयन्) = समन्तात् धारण करते हैं। जान ही वस्तुत: उन्हें देव बनाता है। देव बनकर वे महादेव के समीप होते चलते हैं। अन्ततः वे हृदयों में प्रभु के प्रकाश को देखते हैं। २. हे (ब्रह्मणस्पते) = ज्ञान के स्वमिन् प्रभो । (तेन) = उस ज्ञान से (इमम्) = इस अपने उपासक को भी आप (राष्ट्राय) = इस शरीररूप राष्ट्र की उत्तमता के लिए अपने पर शासन कर सकने के लिए-(परिधत्तन) = धारण कीजिए।
भावार्थ - ज्ञानरूप वस्त्र हमें पाप आदि से सुरक्षित करता हुआ देव बनाता है और अन्ततः प्रभु-दर्शन कराता है। इसको धारण करते हुए हम आत्मशासन के योग्य बनें।
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