अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 30/ मन्त्र 4
स॑पत्न॒क्षय॑णं दर्भ द्विष॒तस्तप॑नं हृ॒दः। म॒णिं क्ष॒त्रस्य॒ वर्ध॑नं तनू॒पानं॑ कृणोमि ते ॥
स्वर सहित पद पाठस॒प॒त्न॒ऽक्षय॑णम्। द॒र्भ॒। द्वि॒ष॒तः। तप॑नम्। हृ॒दः। म॒णिम्। क्ष॒त्रस्य॑। वर्ध॑नम्। त॒नू॒ऽपान॑म्। कृ॒णो॒मि॒। ते॒ ॥३०.४॥
स्वर रहित मन्त्र
सपत्नक्षयणं दर्भ द्विषतस्तपनं हृदः। मणिं क्षत्रस्य वर्धनं तनूपानं कृणोमि ते ॥
स्वर रहित पद पाठसपत्नऽक्षयणम्। दर्भ। द्विषतः। तपनम्। हृदः। मणिम्। क्षत्रस्य। वर्धनम्। तनूऽपानम्। कृणोमि। ते ॥३०.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 30; मन्त्र » 4
विषय - सपत्नक्षयणं-द्विषतस्तपनम्
पदार्थ -
१. हे (दर्भ) = वीर्यमणे! तू (सपत्नक्षयणम्) = रोगरूप सपत्नों का क्षय करनेवाला है। (द्विषतः) = हमसे प्रीति न करनेवाले राग-द्वेष आदि के (हृदः) = हृदयों को तू (तपनम्) = सन्तप्त करनेवाला है, अर्थात् इनको समाप्त करनेवाला है। २. तू (क्षत्रस्य वर्धनम्) = क्षतों से त्राण करनेवाले बल का बढ़ानेवाला है। (मणिम्) = तू मणि के तुल्य है। (ते) = तेरे द्वारा ही मैं (तनूपानम्) = शरीर का रक्षण (कृणोमि) = करता हूँ। अथवा शरीर में तेरा पान करता हूँ। शरीर में तुझे सुरक्षित करता हुआ मैं अपने को रक्षित करता हूँ।
भावार्थ - रोगरूप सपत्नों का नाश करनेवाली इस दर्भमणि [वीर्य] को मैं शरीर में सुरक्षित करता हुआ, इसके द्वारा अपना रक्षण करता हूँ।
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