अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 33/ मन्त्र 2
घृ॒तादुल्लु॑प्तो॒ मधु॑मा॒न्पय॑स्वान्भूमिदृं॒होऽच्यु॑तश्च्यावयि॒ष्णुः। नु॒दन्त्स॒पत्ना॒नध॑रांश्च कृ॒ण्वन्दर्भा रो॑ह मह॒तामि॑न्द्रि॒येण॑ ॥
स्वर सहित पद पाठघृ॒तात्। उत्ऽलु॑प्तः। मधु॑ऽमान्। पय॑स्वान्। भू॒मि॒ऽदृं॒हः। अच्यु॑तः। च्या॒व॒यि॒ष्णुः। नु॒दन्। स॒ऽपत्ना॑न्। अध॑रान्। च॒। कृ॒ण्वन्। दर्भ॑। आ। रो॒ह॒। म॒ह॒ताम्। इ॒न्द्रि॒येण॑ ॥३३.२॥
स्वर रहित मन्त्र
घृतादुल्लुप्तो मधुमान्पयस्वान्भूमिदृंहोऽच्युतश्च्यावयिष्णुः। नुदन्त्सपत्नानधरांश्च कृण्वन्दर्भा रोह महतामिन्द्रियेण ॥
स्वर रहित पद पाठघृतात्। उत्ऽलुप्तः। मधुऽमान्। पयस्वान्। भूमिऽदृंहः। अच्युतः। च्यावयिष्णुः। नुदन्। सऽपत्नान्। अधरान्। च। कृण्वन्। दर्भ। आ। रोह। महताम्। इन्द्रियेण ॥३३.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 33; मन्त्र » 2
विषय - मधुमान-पयस्वान्
पदार्थ -
१. शरीर में रेत:कणों की ऊर्ध्वगति होकर जब ये ज्ञानाग्नि का ईधन बनते हैं-सारे रुधिर में व्याप्त हो जाते हैं तब ये अदृष्ट हो जाते हैं। यही इनका 'उल्लोपन' है। (घृतात्) = मलों के क्षरण व ज्ञानदीप्ति के हेतु से (उल्लुप्तः) शरीर में ऊर्ध्वगति द्वारा अदृष्ट किया हुआ यह दर्भ (मधुमान्) = जीवन को माधुर्यवाला बनाता है। (पयस्वान्) = यह जीवन में प्रशस्त आप्यायन का कारण बनता है। (भूमिदृंहः) यह शरीररूप भूमि को दृढ़ बनाता है। (अच्युतः) = शत्रुओं से च्युत न किया जाता हुआ (च्यावयिष्णु:) = रोगरूप शत्रुओं को च्युत करनेवाला है। २. हे (दर्भ) = वीर्यमणे! (सपत्नान्) = रोगरूप शत्रुओं को परे धकेलता हुआ (च) = और (अधरान् कृण्वन्) = उनको पाँवों तले रोंदता हुआ-पराजित करता हुआ तू (महताम्) = [मह पूजायाम्] इन प्रभु-पूजन करनेवालों के (इन्द्रियेण) = बल के हेतु से (आरोह) = शरीर में ऊर्ध्व गतिवाला हो। शरीर में ऊर्ध्व गतिवाला होता हुआ यह वीर्य सब इन्द्रियों को सबल बनाता है।
भावार्थ - जब शरीर में इस वीर्य की ऊर्ध्वगति होती है और यह रुधिर में व्याप्त होकर अदृष्ट-सा हो जाता है, तब यह जीवन को मधुर बनाता है, शरीर को दृढ़ करता है, रोगों को विनष्ट करता है, एक-एक इन्द्रिय को सशक्त करता है।
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