अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 36/ मन्त्र 1
शृङ्गा॑भ्यां॒ रक्षो॑ नुदते॒ मूले॑न यातुधा॒न्यः। मध्ये॑न॒ यक्ष्मं॑ बाधते॒ नैनं॑ पा॒प्माति॑ तत्रति ॥
स्वर सहित पद पाठशृङ्गा॑भ्याम्। रक्षः॑। नु॒द॒ते॒। मूले॑न। या॒तु॒ऽधा॒न्यः᳡। मध्ये॑न। यक्ष्म॑म्। बा॒ध॒ते॒। न। ए॒न॒म्। पा॒प्मा। अति॑। त॒त्र॒ति॒ ॥३६.२॥
स्वर रहित मन्त्र
शृङ्गाभ्यां रक्षो नुदते मूलेन यातुधान्यः। मध्येन यक्ष्मं बाधते नैनं पाप्माति तत्रति ॥
स्वर रहित पद पाठशृङ्गाभ्याम्। रक्षः। नुदते। मूलेन। यातुऽधान्यः। मध्येन। यक्ष्मम्। बाधते। न। एनम्। पाप्मा। अति। तत्रति ॥३६.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 36; मन्त्र » 1
विषय - दुर्णामचातनः
पदार्थ -
१. यह (शतवारः) = शतसंख्याक रोगों का निवारण करनेवाली 'शतवार' नाम वीर्यमणि (यक्ष्मान्) = रोगों को (अनीनशत्) = नष्ट करती है। (तेजसा) = अपने तेज से (रक्षासि) = अपने रमण के लिए औरों का क्षय करनेवाले रोगकृमियों को नष्ट करती है। २. (आरोहन्) = शरीर में ऊर्ध्वगतिवाली होती हुई यह (मणि:) = वीर्यमणि (वर्चसा सह) = वर्चस् के साथ (दुर्गामचातन:) = अर्शस् आदि पाप रोगों को नष्ट करनेवाली है।
भावार्थ - शतसंख्याक रोगों का निवारण करने से वीर्य 'शतवार' है। यह रोगों, रोगकृमियों को नष्ट करती है। शरीर में ऊर्ध्वगतिवाला होता हुआ यह 'शतवार' बवासीर आदि पाप-रोगों को नष्ट करता है।
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