अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 36/ मन्त्र 2
श॒तवा॑रो अनीनश॒द्यक्ष्मा॒न्रक्षां॑सि॒ तेज॑सा। आ॒रोह॒न्वर्च॑सा स॒ह म॒णिर्दु॑र्णाम॒चात॑नः ॥
स्वर सहित पद पाठश॒तऽवा॑रः। अ॒नी॒न॒श॒त्। यक्ष्मा॑न्। रक्षां॑सि। तेज॑सा। आ॒ऽरोह॑न्। वर्च॑सा। स॒ह। म॒णिः। दु॒र्ना॒म॒ऽचात॑नः ॥३६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
शतवारो अनीनशद्यक्ष्मान्रक्षांसि तेजसा। आरोहन्वर्चसा सह मणिर्दुर्णामचातनः ॥
स्वर रहित पद पाठशतऽवारः। अनीनशत्। यक्ष्मान्। रक्षांसि। तेजसा। आऽरोहन्। वर्चसा। सह। मणिः। दुर्नामऽचातनः ॥३६.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 36; मन्त्र » 2
विषय - रक्षः, यातुधान्यः, यक्ष्मम्
पदार्थ -
१. यह 'शतवार' वीर्यमणि (शृङ्गाभ्याम्) = अपने सींगों से-अग्रभागों से (रक्षः नुदते) = रोग कृमियों व राक्षसीभावों को परे धकेलती है। (मूलेन) = मूल से (यातुधान्य:) = पीड़ा का अधान करनेवाली बिमारियों को दूर करती है और (मध्येन) = अपने मध्यभाग से (यक्ष्मम्) = क्षयरोग को (बाधते) = बाधित करती है। २. शतवार मणि को यदि एक वृक्ष के रूप में चित्रित करें तो वह अपने अग्रभाग से मानो रोगकमियों को, मूल से पीड़ाकर रोगों को तथा मध्य से राजरोग को दूर करती है। (एनम्) = इसको (पाप्मा) = कोई भी रोग (न अति तत्रति) = आक्रान्त नहीं कर पाता।
भावार्थ - वीर्य 'शतवार' मणि है। यह रोगकृमियों, रोगों व राजरोगों को विनष्ट करती है। रोग इसे आक्रान्त नहीं कर पाते।
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