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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 36

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 36/ मन्त्र 4
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - शतवारः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शतवारमणि सूक्त

    श॒तं वी॒रान॑जनयच्छ॒तं यक्ष्मा॒नपा॑वपत्। दु॒र्णाम्नः॒ सर्वा॑न्ह॒त्वाव॒ रक्षां॑सि धूनुते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श॒तम्। वी॒रान्। अ॒ज॒न॒य॒त्। श॒तम्। यक्ष्मा॑न्। अप॑। अ॒व॒प॒त्। दुः॒ऽनाम्नः॑। सर्वा॑न्। ह॒त्वा। अव॑। रक्षां॑सि। धू॒नु॒ते॒ ॥३६.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शतं वीरानजनयच्छतं यक्ष्मानपावपत्। दुर्णाम्नः सर्वान्हत्वाव रक्षांसि धूनुते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शतम्। वीरान्। अजनयत्। शतम्। यक्ष्मान्। अप। अवपत्। दुःऽनाम्नः। सर्वान्। हत्वा। अव। रक्षांसि। धूनुते ॥३६.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 36; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    १. यह शतवार मणि हमें (शतम्) = शतवर्षपर्यन्त-आजीवन (वीरान् अजनयत्) = वीर बनाती है। इसके रक्षण से हम सदा वीर बने रहते हैं। यह (शतं यक्ष्मान्) = सैकड़ों रोगों को अपावपत् सुदूर विनष्ट करनेवाली होती है। २. (सर्वान) = सब (दुर्णाम्न:) = श्वित्र, दद्ग, पामा आदि दुष्ट रोगों को (हत्वा) = विनष्ट करके (रक्षांसि अवधूनुते) = सब रोगकृमियों को कम्पित करके दूर करती है।

    भावार्थ - सुरक्षित वीर्य हमें वीर बनाता है और रोगों को दूर करता है।

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