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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 37

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 37/ मन्त्र 2
    सूक्त - अथर्वा देवता - अग्निः छन्दः - आस्तारपङ्क्तिः सूक्तम् - बलप्राप्ति सूक्त

    वर्च॒ आ धे॑हि मे त॒न्वां सह॒ ओजो॒ वयो॒ बल॑म्। इ॑न्द्रि॒याय॑ त्वा॒ कर्म॑णे वी॒र्याय॒ प्रति॑ गृह्णामि श॒तशा॑रदाय ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वर्चः॑। आ। धे॒हि॒। मे॒। त॒न्वा᳡म्। सहः॑। ओजः॑। वयः॑। बल॑म्। इ॒न्द्रि॒याय॑। त्वा॒। कर्म॑णे। वी॒र्या᳡य। प्रति॑। गृ॒ह्णा॒मि॒। श॒तऽशा॑रदाय ॥३७.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वर्च आ धेहि मे तन्वां सह ओजो वयो बलम्। इन्द्रियाय त्वा कर्मणे वीर्याय प्रति गृह्णामि शतशारदाय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वर्चः। आ। धेहि। मे। तन्वाम्। सहः। ओजः। वयः। बलम्। इन्द्रियाय। त्वा। कर्मणे। वीर्याय। प्रति। गृह्णामि। शतऽशारदाय ॥३७.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 37; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    १. हे परमात्मन् ! (मे तन्वाम्) = मेरे शरीर में (वर्च: आधेहि) = शत्रुओं के आवर्जक प्रताप को स्थापित कीजिए। (सहः) = शत्रुमर्षक बल को, (ओज:) = ओजस्विता को, (वय:) = नित्य यौवन व पौरुष को तथा (बलम्) = बल को धारण कीजिए। २.हे प्रभो! (त्वा) = आपको मैं (प्रतिगृहामि) = हृदयदेश में ग्रहण करने के लिए यत्नशील होता है, जिससे (इन्द्रियाय) = मेरी सब इन्द्रियाँ ठीक से कार्य करनेवाली हों। (कर्मणे) = मैं यज्ञादि कमों में प्रवृत्त रहूँ। (वीर्याय) = शक्तिशाली बना रहूँ और (शतशारदाय) = पूरे सौ वर्षों के जीवनवाला होऊँ।

    भावार्थ - प्रभु मुझे शक्ति प्रास कराएँ। प्रभु-स्मरण से मेरी इन्द्रियाँ सशक्त व पवित्र बनी रहें। मैं यज्ञ आदि कर्मों को करनेवाला बनूं, वीर्यवान् होऊँ और दीर्घजीवन प्राप्त करूँ।

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