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अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 37/ मन्त्र 4
सूक्त - अथर्वा
देवता - अग्निः
छन्दः - पुरउष्णिक्
सूक्तम् - बलप्राप्ति सूक्त
ऋ॒तुभ्य॑ष्ट्वार्त॒वेभ्यो॑ मा॒द्भ्यः सं॑वत्स॒रेभ्यः॑। धा॒त्रे वि॑धा॒त्रे स॒मृधे॑ भू॒तस्य॒ पत॑ये यजे ॥
स्वर सहित पद पाठऋ॒तुऽभ्यः॑। त्वा॒। आ॒र्त॒वेभ्यः॑। मा॒त्ऽभ्यः। स॒म्ऽव॒त्स॒रेभ्यः॑। धा॒त्रे। वि॒ऽधा॒त्रे। स॒म्ऽऋधे॑। भू॒तस्य॑। पत॑ये। य॒जे॒ ॥३७.४॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋतुभ्यष्ट्वार्तवेभ्यो माद्भ्यः संवत्सरेभ्यः। धात्रे विधात्रे समृधे भूतस्य पतये यजे ॥
स्वर रहित पद पाठऋतुऽभ्यः। त्वा। आर्तवेभ्यः। मात्ऽभ्यः। सम्ऽवत्सरेभ्यः। धात्रे। विऽधात्रे। सम्ऽऋधे। भूतस्य। पतये। यजे ॥३७.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 37; मन्त्र » 4
विषय - 'धात्रे-विधात्रे, समृधे, भूतस्य पतये' यजे
पदार्थ -
१. हे प्रभो! (ऋतुभ्य:) = ऋतुओं के लिए (त्वा यजे) = मैं आपका पूजन करता हूँ। आपके पूजन से मुझे ऋतुओं की अनुकूलता हो। (आर्तवेभ्य:) = ऋतुओं में उत्पन्न होनेवाले फूल-फलों के लिए मैं आपका उपासन करता हूँ। मुझे उनकी अनुकूलता प्राप्त हो। (माभ्यः संवत्सरेभ्यः) = महीनों व वर्षों के लिए मैं आपका पूजन करता हूँ। आपका पूजन मेरे मासों व वर्षों को उत्तम व सफल बनाए। २. मैं (धात्रे) = सृष्टि का धारण करनेवाले, (विधात्रे) = सृष्टि का निर्माण करनेवाले, (समृधे) = सब प्रकार के ऐश्वर्योवाले (भूतस्य पतये) = सब प्राणियों के स्वामी आपके लिए (यजे) = अपना अर्पण करता हूँ। आपने ही मेरे जीवन-रथ का सारथि बनकर इसे लक्ष्य-स्थान पर पहुँचाना है।
भावार्थ - प्रभु-पूजन से हमारे लिए ऋतुओं, मासों ब वर्षों को अनुकूलता प्रास हो। हम उस प्रभु के प्रति अपना अर्पण करें जोकि 'धाता, विधाता, समृद्ध व भूतपति' है। सूक्त का ऋषि 'अथर्वा' गुग्गुल आदि पदार्थों का यथायोग करता हुआ स्वस्थ बनता है -
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