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अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 38/ मन्त्र 1
सूक्त - अथर्वा
देवता - गुल्गुलुः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मनाशन सूक्त
न तं यक्ष्मा॒ अरु॑न्धते॒ नैनं॑ श॒पथो॑ अश्नुते। यं भे॑ष॒जस्य॑ गुल्गु॒लोः सु॑र॒भिर्ग॒न्धो अ॑श्नु॒ते ॥
स्वर सहित पद पाठन। तम्। यक्ष्माः॑। अरु॑न्धते। न। ए॒न॒म्। श॒पथः॑। अ॒श्नु॒ते॒। यम्। भे॒ष॒जस्य॑। गु॒ल्गु॒लोः। सु॒र॒भिः। ग॒न्धः। अ॒श्नु॒ते ॥३८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
न तं यक्ष्मा अरुन्धते नैनं शपथो अश्नुते। यं भेषजस्य गुल्गुलोः सुरभिर्गन्धो अश्नुते ॥
स्वर रहित पद पाठन। तम्। यक्ष्माः। अरुन्धते। न। एनम्। शपथः। अश्नुते। यम्। भेषजस्य। गुल्गुलोः। सुरभिः। गन्धः। अश्नुते ॥३८.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 38; मन्त्र » 1
विषय - गुग्गुलु
पदार्थ -
१. (तम्) = उस साधक को (यक्ष्मा:) = राजरोग न अरुन्धते नहीं घेरते तथा (एनम्) = इसको (शपथ:) = शाप व क्रोध-वचन न (अश्नुते) = नहीं व्यापता, (यम्) = जिसको (भेषजस्य) = औषधभूत [भेषं रोगभयं जयति] रोगभय को जीतनेवाले (गुल्गुलो:) = गुग्गुल का [गुज् स्तेये, गड रक्षणे] रोगों के अपहरण द्वारा रक्षण करनेवाले इस पदार्थ का (सुरभिः गन्धः) = उत्तम गन्ध (अश्नुते) = व्यापता है [सुष्टु रभते] यह गन्ध रोगों पर सम्यक् आक्रमण करनेवाला होता है।
भावार्थ - अग्निहोत्र में गुग्गुल की हवि सम्पूर्ण घर को उस गन्ध से व्याप्त कर देती है जोकि रोगों को आक्रान्त करके होताओं को नौरोग व शान्तचित्त बना देती है। यह तो है ही रोगापहारी [गुज स्तेये] तथा रक्षक [गुड रक्षणे]।
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