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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 38

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 38/ मन्त्र 2
    सूक्त - अथर्वा देवता - गुल्गुलुः छन्दः - चतुष्पदोष्णिक् सूक्तम् - यक्ष्मनाशन सूक्त

    विष्व॑ञ्च॒स्तस्मा॒द्यक्ष्मा॑ मृ॒गा अश्वा॑ इवेरते। यद्गु॑ल्गु॒लु सै॑न्ध॒वं यद्वाप्यसि॑ समु॒द्रिय॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विष्व॑ञ्चः। तस्मा॑त्। यक्ष्माः॑। मृ॒गाः। अश्वाः॑ऽइव। ई॒र॒ते॒। यत्। गु॒ल्गु॒लु। सै॒न्ध॒वम्। यत्। वा॒। अपि॑। असि॑। स॒मु॒द्रिय॑म् ॥३८.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विष्वञ्चस्तस्माद्यक्ष्मा मृगा अश्वा इवेरते। यद्गुल्गुलु सैन्धवं यद्वाप्यसि समुद्रियम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विष्वञ्चः। तस्मात्। यक्ष्माः। मृगाः। अश्वाःऽइव। ईरते। यत्। गुल्गुलु। सैन्धवम्। यत्। वा। अपि। असि। समुद्रियम् ॥३८.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 38; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    १. (यत्) = जो (गुल्गुलु) = गुग्गुल (सैन्धवम्) = नदी के तट पर उत्पन्न होनेवाला है, (यद् वा) = अथवा जो (समुद्रियम्) = समुद्र के किनारे (अपि असि) = भी उत्पन्न होनेवाला है। (तस्मात) = उसके प्रयोग से (यक्ष्मा:) = रोग (विष्वञ्च:) = विविध दिशाओं में गतिवाले होते हुए (अश्वा:) = मार्गों का शीघ्रता से व्यापन करनेवाले (मृगा: इव) = मृगों के समान (ईरते) = भाग खड़े होते हैं। २. (अस्मै) = इस रोगी के लिए (आरिष्टतातये) = कल्याण के विस्तार के लिए (उभयो:) = सैन्धव व समुद्रिय दोनों ही गुग्गुलों के (नाम अग्रभम्) = स्वरूप [form] को प्रतिपादित करता हूँ।

    भावार्थ - गुग्गुल चाहे नदी तट पर उद्भुत हो, चाहे समुद्र तट पर, दोनों ही गुग्गुल यक्ष्मा रोग को भागने में समर्थ हैं। अगले सूक्त में ऋषि 'भृगु अंगिरा:' है-तपस्याग्नि में अपने को परिपक्व करनेवाला अंग-प्रत्यंग में रस के संचारवाला! यह 'कुष्ठ' औषध के प्रयोग से रोगनाश का प्रतिपादन करता है -

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