अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 46/ मन्त्र 7
सूक्त - प्रजापतिः
देवता - अस्तृतमणिः
छन्दः - पञ्चपदा पथ्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - अस्तृतमणि सूक्त
यथा॒ त्वमु॑त्त॒रोऽसो॑ असप॒त्नः स॑पत्न॒हा। स॑जा॒ताना॑मसद्व॒शी तथा॑ त्वा सवि॒ता क॑र॒दस्तृ॑तस्त्वा॒भि र॑क्षतु ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑। त्वम्। उ॒त्ऽत॒रः। असः॑। अ॒स॒प॒त्नः। स॒प॒त्न॒ऽहा। स॒ऽजा॒ताना॑म्। अ॒स॒त्। व॒शी। तथा॑। त्वा॒। स॒वि॒ता। क॒र॒त्। अस्तृ॑तः। त्वा॒। अ॒भि। र॒क्ष॒तु॒ ॥४६.७॥
स्वर रहित मन्त्र
यथा त्वमुत्तरोऽसो असपत्नः सपत्नहा। सजातानामसद्वशी तथा त्वा सविता करदस्तृतस्त्वाभि रक्षतु ॥
स्वर रहित पद पाठयथा। त्वम्। उत्ऽतरः। असः। असपत्नः। सपत्नऽहा। सऽजातानाम्। असत्। वशी। तथा। त्वा। सविता। करत्। अस्तृतः। त्वा। अभि। रक्षतु ॥४६.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 46; मन्त्र » 7
विषय - असपत्ना:-सपत्नहा
पदार्थ -
१. हे वीर्य का रक्षण करनेवाले पुरुष ! (सविता) = वह प्रेरक प्रभु (त्वा) = तुझे तथा (करत्) = वैसा बनाए, प्रेरणा द्वारा तेरे जीवन को इसप्रकार संयमवाला बनाए कि (यथा) = जिससे (त्वम्) = तू (उत्तरः अस:) = शत्रुओं के साथ संग्राम में उत्कृष्ट बने। (असपत्न:) = शत्ररहित बने। (सपत्नहा) = सब शत्रओं को समाप्त करनेवाला हो तथा (सजातानाम्) = समान कुल में उत्पन्न हुए-हुए अथवा समान आयुष्यवालों का वशी (असत्) = वश में करनेवाला हो। २. शरीर में सुरक्षित (अस्तृतः) = यह हिंसित न होनेवाले वीर्यमणि (त्वा अभिरक्षतु) = तेरा रक्षण करे। इसने ही तो तुझे सब रोगों के आक्रमण से बचाना है।
भावार्थ - प्रभु अपनी प्रेरणा द्वारा हमारे जीवन को इसप्रकार संयमवाला बनाएँ कि हम उत्कृष्टतम जीवनवाले बनें। सुरक्षित वीर्य हमें नीरोग व निर्मल बनाए। सुरक्षित वीर्य से अपने जीवन को नीरोग व निर्मल बनाकर यह ज्ञान की वाणियों के मार्ग पर चलनेवाला व्यक्ति 'गो-पथ' कहलाता है। यही अगले चार रात्रि-सूक्तों का ऋषि है -
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