अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 46/ मन्त्र 1
सूक्त - प्रजापतिः
देवता - अस्तृतमणिः
छन्दः - पञ्चपदा मध्येज्योतिष्मती त्रिष्टुप्
सूक्तम् - अस्तृतमणि सूक्त
प्र॒जाप॑तिष्ट्वा बध्नात्प्रथ॒ममस्तृ॑तं वी॒र्याय॒ कम्। तत्ते॑ बध्ना॒म्यायु॑षे॒ वर्च॑स॒ ओज॑से च॒ बला॑य॒ चास्तृ॑तस्त्वा॒भि र॑क्षतु ॥
स्वर सहित पद पाठप्र॒जाऽप॑तिः। त्वा॒। ब॒ध्ना॒त्। प्र॒थ॒मम्। अस्तृ॑तम्। वी॒र्या᳡णि। कम्। तत्। ते॒। ब॒ध्ना॒मि॒। आयु॑षे। वर्च॑से। ओज॑से। च॒। बला॑य। च॒। अस्तृ॑तः। त्वा॒। अ॒भि। र॒क्ष॒तु॒ ॥४६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रजापतिष्ट्वा बध्नात्प्रथममस्तृतं वीर्याय कम्। तत्ते बध्नाम्यायुषे वर्चस ओजसे च बलाय चास्तृतस्त्वाभि रक्षतु ॥
स्वर रहित पद पाठप्रजाऽपतिः। त्वा। बध्नात्। प्रथमम्। अस्तृतम्। वीर्याणि। कम्। तत्। ते। बध्नामि। आयुषे। वर्चसे। ओजसे। च। बलाय। च। अस्तृतः। त्वा। अभि। रक्षतु ॥४६.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 46; मन्त्र » 1
विषय - अस्तृत मणि
पदार्थ -
१. (प्रजापतिः) = प्रभु ने (प्रथमम्) = सर्वप्रथम (अस्तृतम् त्वा) = 'अस्तृत' भागवाले तुझे (बध्नात्) = शरीर में बद्ध किया। (वीर्याय) = पराक्रम के सम्पादन के लिए तथा (कम्) = सुख के लिए। शरीर में यह वीर्य ही अस्तृतमणि है-'अस्तृत' अर्थात् अहिंसित [स्तु to kill]| वीर्य के सुरक्षित होने पर रोगों व असद् भावनाओं का आक्रमण नहीं होता। २. (तत्) = उस (ते) = तेरी अस्तृतमणि को ही मैं (बध्नामि) = अपने अन्दर बौधता है, (आयुषे) = दीर्घजीवन के लिए (वर्चस) = श्रुताध्ययन से उत्पन्न तेज के लिए (च) = और (ओजसे) = ओजस्विता के लिए (बलाय च) = तथा बल के लिए। प्रभु कहते हैं कि अस्तृतः यह अस्तृतमणि (त्वा अभिरक्षतु) = तेरा 'शरीर व मन' दोनों क्षेत्रों में रक्षण करे यह तुझे आधि-व्याधियों से बचाए।
भावार्थ - शरीर में बद्ध अस्तृत-[वीर्य]-मणि हमें 'दीर्घजीवन, वर्चस्, ओजस्विता व बल' प्रदान करती है।
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