अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 45/ मन्त्र 10
सूक्त - भृगुः
देवता - आञ्जनम्
छन्दः - एकावसाना निचृन्महाबृहती
सूक्तम् - आञ्जन सूक्त
म॒रुतो॑ मा ग॒णैर॑वन्तु प्रा॒णाया॑पा॒नायु॑षे॒ वर्च॑स॒ ओज॑से॒ तेज॑से स्व॒स्तये॑ सुभू॒तये॒ स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठम॒रुतः॑। मा॒। ग॒णैः। अ॒व॒न्तु॒। प्रा॒णाय॑। अ॒पा॒नाय॑। आयु॑षे। वर्च॑से। ओज॑से। तेज॑से। स्व॒स्तये॑। सु॒ऽभू॒तये॑। स्वाहा॑ ॥४५.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
मरुतो मा गणैरवन्तु प्राणायापानायुषे वर्चस ओजसे तेजसे स्वस्तये सुभूतये स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठमरुतः। मा। गणैः। अवन्तु। प्राणाय। अपानाय। आयुषे। वर्चसे। ओजसे। तेजसे। स्वस्तये। सुऽभूतये। स्वाहा ॥४५.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 45; मन्त्र » 10
विषय - मरुतः गणैः
पदार्थ -
१. (मरुत:) = प्राण (गणैः) = ज्ञानेन्द्रिय पञ्चक, अन्त:-करण पञ्चक [मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार हृदय] आदि गणों के साथ (मा अवन्तु) = मेरा रक्षण करें। २. प्राणसाधना द्वारा प्राणशक्ति का वर्धन होकर मुझे दीर्घजीवन प्रास हो।
भावार्थ - प्राणसाधना होने पर मेरी इन्द्रियों के गण उत्तम होकर मुझे प्राणापानशक्तिसम्पन्न दीर्घजीवन प्रास कराएँ। अपने जीवन में 'आयु-वर्चस-ओज व तेज' को प्राप्त करके यह प्रजाओं का रक्षण करनेवाला 'प्रजापति' बनता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है -
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