अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 45/ मन्त्र 5
आक्ष्वैकं॑ म॒णिमेकं॑ कृणुष्व स्ना॒ह्येके॒ना पि॒बैक॑मेषाम्। चतु॑र्वीरं नैरृ॒तेभ्य॑श्च॒तुर्भ्यो॒ ग्राह्या॑ ब॒न्धेभ्यः॒ परि॑ पात्व॒स्मान् ॥
स्वर सहित पद पाठआ। अ॒क्ष्व॒। एक॑म्। म॒णिम्। एक॑म्। कृ॒णु॒ष्व॒। स्ना॒हि। एके॑न। आ। पि॒ब॒। एक॑म्। ए॒षा॒म्। चतुः॑ऽवीरम्। नैः॒ऽऋ॒तेभ्यः॑। च॒तुःऽभ्यः॑। ग्राह्याः॑। ब॒न्धेभ्यः॑। परि॑। पा॒तु॒। अ॒स्मान् ॥४५.५॥
स्वर रहित मन्त्र
आक्ष्वैकं मणिमेकं कृणुष्व स्नाह्येकेना पिबैकमेषाम्। चतुर्वीरं नैरृतेभ्यश्चतुर्भ्यो ग्राह्या बन्धेभ्यः परि पात्वस्मान् ॥
स्वर रहित पद पाठआ। अक्ष्व। एकम्। मणिम्। एकम्। कृणुष्व। स्नाहि। एकेन। आ। पिब। एकम्। एषाम्। चतुःऽवीरम्। नैःऽऋतेभ्यः। चतुःऽभ्यः। ग्राह्याः। बन्धेभ्यः। परि। पातु। अस्मान् ॥४५.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 45; मन्त्र » 5
विषय - आक्ष्व-मणिं कृष्णुष्व-स्नाहि-पिब
पदार्थ -
१. (एषाम्) = इन रेताः कणों के (एकम्) = इस अद्वितीय तत्त्व को (आ अश्व) = [अक्ष व्याप्ती] शरीर में चारों ओर व्याप्त कर। (एकम्) = इस अद्वितीय तत्त्व को (मणिं कृष्णुष्व) = तू अपनी मणि बना ले-यही तुझे अलंकृत करेगा। (एकेन) = इस अद्वितीय तत्त्व से (स्नाहि) = तू अपने को पवित्र करले। (एकम्) = इस अद्वितीय तत्त्व का (पिब) = तू अपने अन्दर पान कर। २. (चतुर्वीरम्) = हमारे चारों अंगों को वीर बनानेवाला [मुख, बाहू, ऊरू, पाद] यह वीर्य चतुर्थ्य: (नीतेभ्यः) = चारों अंगों में होनेवाली दुर्गतियों को तथा (ग्राह्या:) = वात-विकार-जनित गठिया रोग के (बन्धेभ्य:) = बन्धनों से (अस्मान्) = हमें (परिपातु) = सुरक्षित करे।
भावार्थ - वीर्य को हम शरीर में व्याप्त करें। इसे अपने को सुभूषित करनेवाली मणि बनाएँ-इससे अपने को परिशुद्ध करें-इसे अपने अन्दर पीनेवाले बनें। यह चारों अंगों को वीर बनानेवाला बीर्य हमें चारों अंगों की पीड़ा के जनक ग्राही के बन्धनों से मुक्त रक्खेगा।
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