अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 45/ मन्त्र 3
अ॒पामू॒र्ज ओज॑सो वावृधा॒नम॒ग्नेर्जा॒तमधि॑ जा॒तवे॑दसः। चतु॑र्वीरं पर्व॒तीयं॒ यदाञ्ज॑नं॒ दिशः॑ प्रदिशः कर॒दिच्छि॒वास्ते॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒पाम्। ऊ॒र्जः। ओज॑सः। व॒वृ॒धा॒नम्। अ॒ग्नेः। जा॒तम्। अधि॑। जा॒तऽवे॑दसः। चतुः॑ऽवीरम्। प॒र्व॒तीय॑म्। यत्। आ॒ऽअञ्ज॑नम्। दिशः॑। प्र॒ऽदिशः॑। क॒र॒त्। इत्। शि॒वाः। ते॒ ॥४५.३॥
स्वर रहित मन्त्र
अपामूर्ज ओजसो वावृधानमग्नेर्जातमधि जातवेदसः। चतुर्वीरं पर्वतीयं यदाञ्जनं दिशः प्रदिशः करदिच्छिवास्ते ॥
स्वर रहित पद पाठअपाम्। ऊर्जः। ओजसः। ववृधानम्। अग्नेः। जातम्। अधि। जातऽवेदसः। चतुःऽवीरम्। पर्वतीयम्। यत्। आऽअञ्जनम्। दिशः। प्रऽदिशः। करत्। इत्। शिवाः। ते ॥४५.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 45; मन्त्र » 3
विषय - 'बल प्राण व ओज' का वर्धन
पदार्थ -
१. (अपाम्) = प्रजाओं के (ऊर्ज:) = बल व प्राणशक्ति का तथा (ओजस:) = ओज का (वावृधानम्) = निरन्तर बढ़ानेवाला (यत् आञ्जनम्) = जो यह जीवन को सद्गुणों से अलंकृत करनेवाला वीर्य है वह (ते) = तेरी (दिश: प्रदिश:) = दिशाओं व प्रदिशाओं को (शिवाः करत) = कल्याणकर करे। सुरक्षित वीर्य हमें बलवान्, प्राणशक्तिसम्पन्न व ओजस्वी बनाता हुआ (चतुर्वीरम्) = हमारे चारों अंगों को [मुख, बाहू, ऊरू, पाद] बीर बनाता है। (पर्वतीयम्) = हमारा पूरण करनेवाले तत्वों के लिए हितकर है। शरीर का पूरण करनेवाले सब तत्त्वों को हममें सम्यक् उत्पन्न करता हुआ यह हमारे लिए हित-तम है।
भावार्थ - शरीर में सुरक्षित वीर्य हमें 'बल, प्राण व ओज' प्रास कराता है। यह हमारे अंगों को सबल बनाता है। शरीर का पूरण करनेवाले सब तत्वों को सम्यक् उत्पन्न करता है। इस प्रकार यह हमारा सर्वत: कल्याण करनेवाला है।
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