अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 45/ मन्त्र 1
ऋ॒णादृ॒णमि॑व॒ सं न॑यन् कृ॒त्यां कृ॑त्या॒कृतो॑ गृ॒हम्। चक्षु॑र्मन्त्रस्य दु॒र्हार्दः॑ पृ॒ष्टीरपि॑ शृणाञ्जन ॥
स्वर सहित पद पाठऋ॒णात्। ऋ॒णम्ऽइ॑व। स॒म्ऽनय॑न्। कृ॒त्याम्। कृ॒त्या॒ऽकृतः॑। गृ॒हम्। चक्षुः॑ऽमन्त्रस्य। दुः॒ऽहार्दः॑। पृ॒ष्टीः। अपि॑। शृ॒ण॒। आ॒ऽअ॒ञ्ज॒न॒ ॥४५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋणादृणमिव सं नयन् कृत्यां कृत्याकृतो गृहम्। चक्षुर्मन्त्रस्य दुर्हार्दः पृष्टीरपि शृणाञ्जन ॥
स्वर रहित पद पाठऋणात्। ऋणम्ऽइव। सम्ऽनयन्। कृत्याम्। कृत्याऽकृतः। गृहम्। चक्षुःऽमन्त्रस्य। दुःऽहार्दः। पृष्टीः। अपि। शृण। आऽअञ्जन ॥४५.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 45; मन्त्र » 1
विषय - 'वासना व क्रोध' का विनाश
पदार्थ -
१. (ऋणात्) = ऋण में से (ऋणम्) = ऋण के अंश को (इव) = जैसे (संनयन्) = कोई व्यक्ति उत्तमर्ण के घर में पहुँचाता है, उसी प्रकार (कृत्याम्) = हिंसा को (कृत्याकृत:) = हिंसा करनेवाले के घर में पहुँचाते हुए हे (आञ्जन) = हमें गतिशील बनानेवाले और सद्गुणों से हमारे जीवन को अलंकृत करनेवाले वीर्य! तू (चक्षुर्मन्त्रस्य) = आँख से-आँख के इशारों [Sidelook of glances] से मन्त्रणा करनेवाली (दुहर्दिः) = दुष्टहृदयवाली वासना की (पृष्टी: अपि) = पसलियों को भी (शृण) = शीर्ण कर डाल। २. यह सुरक्षित बौर्य हमारे जीवन में से बासना को विनष्ट कर दे। यह हमें हिंसा को अहिंसा से जीतनेवाला बनाए। हिंसक की भी हिंसा न करते हुए हम हिंसा को उसके प्रति वापस भेज दें। हम ऐसा समझें कि हमने पूर्वजन्म में इसका कुछ हिंसन किया होगा, अत: वह ऋण ही अब चुकाया जा रहा है।
भावार्थ - सुरक्षित वीर्यवाला व्यक्ति वासना को विशीर्ण कर डालता है। क्रोध व हिंसा से दूर रहता है। हिंसक की हिंसा में भी ऋण के उतरने की भावना रखता है।
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