Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 44

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 44/ मन्त्र 10
    सूक्त - भृगुः देवता - आञ्जनम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - भैषज्य सूक्त

    मि॒त्रश्च॑ त्वा॒ वरु॑णश्चानु॒प्रेय॑तुराञ्जन। तौ त्वा॑नु॒गत्य॑ दू॒रं भो॒गाय॒ पुन॒रोह॑तुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ


    स्वर रहित मन्त्र

    मित्रश्च त्वा वरुणश्चानुप्रेयतुराञ्जन। तौ त्वानुगत्य दूरं भोगाय पुनरोहतुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 44; मन्त्र » 10

    पदार्थ -
    १. हे (आञ्जन) = शरीर को नीरोगता व निष्पापता से अलंकृत करनेवाले वीर्य! (मित्रः च वरुण: च) = मित्र और वरुण-स्नेह व निर्दृषता के भाव (त्वा अनुप्रेयतु:) = तेरे पीछे गतिवाले होते हैं। वीर्य का रक्षण होने पर स्नेह व नितेषता का हमारे जीवनों में विकास होता है। २. (तौ) = वे स्नेह व निषता के भाव (त्वा अनुगत्य) = तेरा अनुगमन करके दूर (भोगाय) = बहुत दूर तक वास्तविक आनन्द की प्राप्ति के लिए (पुन: आ ऊहतुः) = फिर से शरीर में समन्तात् प्राप्त कराते हैं। ये स्नेह व निषता के भाव वीर्यरक्षण में सहायक होते हैं। वीर्यरक्षण से ये उत्पन्न होते हैं, फिर उत्पन्न होकर ये वीर्यरक्षण के साधक बनते हैं।

    भावार्थ - वीर्य का रक्षण होने पर हममें स्नेह व निषता के भावों का वर्धन होता है। फिर ये भाव वीर्यरक्षण में सहायक बनते हैं।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top