अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 44/ मन्त्र 3
आञ्ज॑नं पृथि॒व्यां जा॒तं भ॒द्रं पु॑रुष॒जीव॑नम्। कृ॒णोत्वप्र॑मायुकं॒ रथ॑जूति॒मना॑गसम् ॥
स्वर सहित पद पाठआ॒ऽअञ्ज॑नम्। पृ॒थि॒व्याम्। जा॒तम्। भ॒द्रम्। पु॒रु॒ष॒ऽजीव॑नम्। कृ॒णोतु॑। अप्र॑ऽमायुकम्। रथ॑ऽजूतिम्। अना॑गसम् ॥४४.३॥
स्वर रहित मन्त्र
आञ्जनं पृथिव्यां जातं भद्रं पुरुषजीवनम्। कृणोत्वप्रमायुकं रथजूतिमनागसम् ॥
स्वर रहित पद पाठआऽअञ्जनम्। पृथिव्याम्। जातम्। भद्रम्। पुरुषऽजीवनम्। कृणोतु। अप्रऽमायुकम्। रथऽजूतिम्। अनागसम् ॥४४.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 44; मन्त्र » 3
विषय - नीरोगता, स्फूर्ति व निष्यापता
पदार्थ -
१. (आञ्जनम्) = शरीर को 'शक्ति, पवित्रता व दीप्ति' से अलंकृत करनेवाली यह वीर्यमणि (पृथिव्याम्) = इस शरीररूप पृथिवी में (जातम्) = उत्पन्न होती है। (भद्रम्) = यह हमारा कल्याण करनेवाली है। (पुरुषजीवनम्) = यह हमारे जीवन को पौरुषयुक्त करती है। २. यह हमारे लिए (अप्रमायुकं कृणोतु) = अमरणशीलता करे-हम सदा रोगी न बने रहें। यह (रथजूतिम्) [कृणोतु] = शरीररूप रथ के वेग को करे, अर्थात् हमारे शरीर-रथ को स्फूर्तिसम्पन्न बनाए, (अनागसम्) = निष्पापता को करे।
भावार्थ - सुरक्षित वीर्य 'नीरोगता-स्फूर्ति व निष्पापता' का साधक होता है। यह हमारे जीवन को पौरुष-सम्पन्न करता हुआ सुखमय बनाता है।
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