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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 44

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 44/ मन्त्र 9
    सूक्त - भृगुः देवता - वरुणः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - भैषज्य सूक्त

    यदा॑पो अ॒घ्न्या इति॒ वरु॒णेति॒ यदू॑चि॒म। तस्मा॑त्सहस्रवीर्य मु॒ञ्च नः॒ पर्यंह॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ


    स्वर रहित मन्त्र

    यदापो अघ्न्या इति वरुणेति यदूचिम। तस्मात्सहस्रवीर्य मुञ्च नः पर्यंहसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 44; मन्त्र » 9

    पदार्थ -
    १. हे आञ्जन मणे [वीर्य]! तू (आप:) = शरीर में सर्वत्र व्याप्त होनेवाला है। (अघ्न्याः इति) = हे वीर्यकणोतुम अहन्तव्य हो-न नष्ट करने योग्य हो अत: 'अन्या' इति इस नामवाले हो। ('वरुण इति') = सब 'आधि-व्याधियों का निवारण करनेवाले' होने से तुम्हें वरुण नाम से (ऊचिम) = कहते हैं। २. (तस्मात) = उस कारण से-'वरुण' होने से हे (सहस्त्रवीर्य) = अनन्त शक्तिवाली वीर्यमणे! तु (न:) = हमें (अंहसः) = पापों से (परिमुञ्च) = सर्वथा मुक्तकर।

    भावार्थ - शरीर में व्यास होने से वीर्य 'आप:' कहलाता है। न नष्ट करने योग्य होने से यह अन्या' है। पापों व कष्टों का निवारण करने से यह 'वरुण' है।

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