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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 44

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 44/ मन्त्र 1
    सूक्त - भृगु देवता - आञ्जनम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - भैषज्य सूक्त

    आयु॑षोऽसि प्र॒तर॑णं॒ विप्रं॑ भेष॒जमु॑च्यसे। तदा॑ञ्जन॒ त्वं श॑न्ताते॒ शमापो॒ अभ॑यं कृतम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आयु॑षः। अ॒सि॒। प्र॒ऽतर॑णम्। विप्र॑म्। भे॒ष॒जम्। उ॒च्य॒से॒। तत्। आ॒ऽअ॒ञ्ज॒न॒। त्वम्। श॒म्ऽता॒ते॒। शम्। आपः॑। अभ॑यम्। कृ॒त॒म् ॥४४.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आयुषोऽसि प्रतरणं विप्रं भेषजमुच्यसे। तदाञ्जन त्वं शन्ताते शमापो अभयं कृतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आयुषः। असि। प्रऽतरणम्। विप्रम्। भेषजम्। उच्यसे। तत्। आऽअञ्जन। त्वम्। शम्ऽताते। शम्। आपः। अभयम्। कृतम् ॥४४.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 44; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    १. गत सूक्त के मन्त्रों के अनुसार 'दीक्षा व तप' में चलनेवाले व्यक्ति शरीर में शक्ति का रक्षण कर पाते हैं। यह वीर्यशक्ति ही यहाँ'आञ्जन' शब्द से कही गई है। [आ अंज-togo. to shine, to decorate] यह शरीर में चारों ओर गतिबाला होता है, शरीर में यही सर्वाधिक शोभावाली धातु है, शरीर में सुरक्षित होकर यह शरीर को 'शक्ति, पवित्रता व दीसि' से अलंकृत करती है। हे (आञ्जन) = वीर्यमणे! तू (आयुषः प्रतरणम् असि) = आयु का बढ़ानेवाला है। विप्रम् विशेषरूप से हमारा पूरण करनेवाला है। (भेषजम् उच्यसे) = सब रोगों को दूर करने से तू औषध कहलाता है। २. (तत्) = अत: हे शंताते शरीर में रोगविनाश द्वारा शान्ति का विस्तार करनेवाले [आप् व्याप्ती] वीर्यकणों [आप:रेतो भूत्वा०] आपके द्वारा (अभयम्) = निर्भयता (कृतम्) = की गई है। शरीर मंक वीर्यकणों के व्यास होने पर रोगों का भय नहीं रहता।

    भावार्थ - शरीर में सुरक्षित वीर्य आयु को बढ़ाता है, कमियों को दूर करता है, सब रोगों का औषध है। शान्ति और अभय को प्राप्त कराता है।

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