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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 44

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 44/ मन्त्र 8
    सूक्त - भृगुः देवता - वरुणः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - भैषज्य सूक्त

    ब॒ह्वि॒दं रा॑जन्वरु॒णानृ॑तमाह॒ पूरु॑षः। तस्मा॑त्सहस्रवीर्य मु॒ञ्च नः॒ पर्यंह॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ


    स्वर रहित मन्त्र

    बह्विदं राजन्वरुणानृतमाह पूरुषः। तस्मात्सहस्रवीर्य मुञ्च नः पर्यंहसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 44; मन्त्र » 8

    पदार्थ -
    १. हे (राजन्) = जीवन को दीस करनेवाले तथा (वरुण) = आधि-व्याधियों का निवारण करनेवाले आञ्जन [वीर्यमणे]! (पूरुषः) = मनुष्य (इदं बहु अनतम् आह) = प्रात: से सायं तक बहुत ही झठों को बोल जाता है। मनुष्य का जीवन विषय-प्रलोभनों से अनृतमय हो जाता है। २. हे (सहस्त्रवीर्य) = अनन्त पराक्रमयुक्त आजनमणे! शरीर में सुरक्षित हुई-हुई तू (न:) = हमें (तस्मात् अंहसः) = उस सब पाप से (परिमुञ्च) = सर्वथा मुक्त कर।

    भावार्थ - सुरक्षित वीर्य जीवन को दीत करता है। वासनाओं का निवारण करता है। यह हमें पापों से मुक्त करे।

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