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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 45

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 45/ मन्त्र 4
    सूक्त - भृगुः देवता - आञ्जनम् छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - आञ्जन सूक्त

    चतु॑र्वीरं बध्यत॒ आञ्ज॑नं ते॒ सर्वा॒ दिशो॒ अभ॑यास्ते भवन्तु। ध्रु॒वस्ति॑ष्ठासि सवि॒तेव॒ चार्य॑ इ॒मा विशो॑ अ॒भि ह॑रन्तु ते ब॒लिम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    चतुः॑ऽवीरम्। ब॒ध्य॒ते॒। आ॒ऽअञ्ज॑नम्। ते॒। सर्वाः॑। दिशः॑। अभ॑याः। ते॒। भ॒व॒न्तु॒। ध्रु॒वः। ति॒ष्ठा॒सि॒। स॒वि॒ताऽइ॑व। च॒। आर्यः॑। इ॒माः। विशः॑। अ॒भि। ह॒र॒न्तु॒। ते॒। ब॒लिम् ॥४५.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    चतुर्वीरं बध्यत आञ्जनं ते सर्वा दिशो अभयास्ते भवन्तु। ध्रुवस्तिष्ठासि सवितेव चार्य इमा विशो अभि हरन्तु ते बलिम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    चतुःऽवीरम्। बध्यते। आऽअञ्जनम्। ते। सर्वाः। दिशः। अभयाः। ते। भवन्तु। ध्रुवः। तिष्ठासि। सविताऽइव। च। आर्यः। इमाः। विशः। अभि। हरन्तु। ते। बलिम् ॥४५.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 45; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    १. (चतुर्वीरम्) = तेरे चारों अंगों को [मुख, बाहू, ऊरू, पाद] वीर बनानेवाला (आञ्जनम्) = तुझे सद्गुणों से अलंकृत करनेवाला यह वीर्य (ते बध्यते) = तेरे अन्दर बाँधा जाता है। (सर्वा: दिश:) = सब दिशाएँ (ते अभयाः भवन्तु) = तेरे लिए निर्भयता देनेवाली हों। २. (सविता इव) = सूर्य की भाँति तू (ध्रुवः तिष्ठासि) = मर्यादा में ध्रुवता से स्थिर होता है। वीर्यवान् पुरुष सूर्य के समान मार्ग का मर्यादित रूप में आक्रमण करता है (च) = और (आर्य:) = तू श्रेष्ठ बनता है अथवा (अर्य:) = अपना स्वामी बनता है। (इमाः विश:) = ये सब प्रजाएँ (ते बलिम् अभिहरन्तु) = तेरे लिए कर प्राप्त कराएँ। यह वीर्यवान् संयमी सूर्यवत् मर्यादित जीवनवाला पुरुष प्रजाओं का शासक बनता है। सब प्रजाएँ इसे राजपद पर प्रतिष्ठित करती हैं।

    भावार्थ - वीर्यरक्षक पुरुष 'मुख, बाह, ऊरू, पाद' इन चारों को सबल बनाता है। यह निर्भय जीवनवाला होता है। स्वयं मर्यादित जीवनवाला होता हुआ प्रजाओं का शासक बनता है। [जितेन्द्रियो हि शक्नोति वशे स्थापयितुं प्रजा:]।

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