अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 48/ मन्त्र 2
सूक्त - गोपथः
देवता - रात्रिः
छन्दः - त्रिपदाविराडनुष्टुप्
सूक्तम् - रात्रि सूक्त
रात्रि॒ मात॑रु॒षसे॑ नः॒ परि॑ देहि। उ॒षो नो॒ अह्ने॒ परि॑ ददा॒त्वह॒स्तुभ्यं॑ विभावरि ॥
स्वर सहित पद पाठरात्रि॑। मातः॑। उ॒षसे॑। नः॒। परि॑। दे॒हि॒। उ॒षाः। नः॒। अह्ने॑। परि॑। द॒दा॒तु॒। अहः॑। तुभ्य॑म्। वि॒भा॒व॒रि॒ ॥४८.२॥
स्वर रहित मन्त्र
रात्रि मातरुषसे नः परि देहि। उषो नो अह्ने परि ददात्वहस्तुभ्यं विभावरि ॥
स्वर रहित पद पाठरात्रि। मातः। उषसे। नः। परि। देहि। उषाः। नः। अह्ने। परि। ददातु। अहः। तुभ्यम्। विभावरि ॥४८.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 48; मन्त्र » 2
विषय - 'रात्रि:-उषा-दिन' और फिर रात्रि
पदार्थ -
१. हे (मातः रात्रि) = मातृवत् परिपालन करनेवाली रात्रिदेवते! तू (नः) = हमें उषसे-अपने अनन्तर आनेवाले उषाकाल के लिए (परि देहि) = दे। रात्रि हमारा रक्षण करती हुई अपनी समाप्ति पर हमें उषाकाल के लिए सौंपे। (उषा) = उषाकाल (अह्ने) = सूर्य के प्रकाशवाले 'प्रात: संगव, मध्याहू, अपराङ्ग, सायाहू' रूप दिन के लिए (परिददातु) = दे, अर्थात् दिवस के प्रारम्भ होने तक उषा हमारा रक्षण करे और अपनी समाप्ति पर हमारे रक्षण का भार दिन को सौंप जाए। २. हे (विभावरि) = तारों की दीप्तिवाली रात्रि! यह (अहः) = दिन अपनी समाप्ति पर (तुभ्यम्) = हमें तुम्हारे लिए सौंपकर आये। इसप्रकार आवृत्त होते हुए दिन-रात हमारा रक्षण करें।
भावार्थ - रात्रि हमें उषा के लिए, उषा दिन के लिए और दिन पुनः रात्रि के लिए सौंपे। इसप्रकार आवर्तमान यह कालचक्र हमारा रक्षण करनेवाला हो।
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