अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 49/ मन्त्र 8
सूक्त - गोपथः, भरद्वाजः
देवता - रात्रिः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - रात्रि सूक्त
भ॒द्रासि॑ रात्रि चम॒सो न वि॒ष्टो विष्व॒ङ्गोरू॑पं युव॒तिर्बि॑भर्षि। चक्षु॑ष्मती मे उश॒ती वपूं॑षि॒ प्रति॒ त्वं दि॒व्या न क्षा॑ममुक्थाः ॥
स्वर सहित पद पाठभ॒द्रा। अ॒सि॒। रा॒त्रि॒। च॒म॒सः। न। वि॒ष्टः। विष्व॑ङ्। गोऽरू॑पम्। यु॒व॒तिः॒। बि॒भ॒र्षि॒। चक्षु॑ष्मती। मे॒। उ॒श॒ती। वपूं॑षि। प्रति॑। त्वम्। दि॒व्या। न। क्षाम्। अ॒मु॒क्थाः॒ ॥४९.८॥
स्वर रहित मन्त्र
भद्रासि रात्रि चमसो न विष्टो विष्वङ्गोरूपं युवतिर्बिभर्षि। चक्षुष्मती मे उशती वपूंषि प्रति त्वं दिव्या न क्षाममुक्थाः ॥
स्वर रहित पद पाठभद्रा। असि। रात्रि। चमसः। न। विष्टः। विष्वङ्। गोऽरूपम्। युवतिः। बिभर्षि। चक्षुष्मती। मे। उशती। वपूंषि। प्रति। त्वम्। दिव्या। न। क्षाम्। अमुक्थाः ॥४९.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 49; मन्त्र » 8
विषय - भद्रा
पदार्थ -
१. हे (रात्रि) = रात्रिदेवते! तू (विष्टः चमसः न) = परोसे हुए पात्र की भाँति (भद्रा असि) = कल्याण करनेवाली है। (युवति:) = बुराइयों को हमसे पृथक् करती हुई तथा अच्छाइयों को हमसे मिलाती हुई तू (विष्वङ्) = चारों ओर गति करनेवाले (गोरूपं बिभर्षि) = गोरूप को धारण करती है। गवादि पशुओं का तू धारण करनेवाली होती है। इन्द्रियों को पुन: रूपवाला, शरीर को सौन्दर्यवाला कर देती है। २. (मे उशती) = मेरे हित की कामना करती हुई (चक्षुष्मती) = हमारे रक्षण के लिए अनुग्रहबुद्धि से हमें देखती हुई (त्वम्) = तू (वपूंसि) = हमारे शरीरों को, (दिव्या) = मस्तिष्करूप धुलोक की शक्तियों को तथा (क्षाम्) = इस निवासस्थानभूत अन्नमयकोश को-स्थूलशरीर को (न प्रति अमुक्था:) = न छोड़नेवाली हो । तू हमारे शरीरों-मस्तिष्कों व अन्नमयकोश को भी ठीक बनानेवाली हो।
भावार्थ - रात्रि में रक्षण की व्यवस्था ठीक होने पर गवादि पशु सुरक्षित रहते हैं। निद्रा के ठीक आने पर हमारे शरीर, मस्तिष्क व अन्नमयकोश ठीक रहते हैं।
इस भाष्य को एडिट करें