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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 49

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 49/ मन्त्र 1
    सूक्त - गोपथः, भरद्वाजः देवता - रात्रिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - रात्रि सूक्त

    इ॑षि॒रा योषा॑ युव॒तिर्दमू॑ना॒ रात्री॑ दे॒वस्य॑ सवि॒तुर्भग॑स्य। अ॑श्वक्ष॒भा सु॒हवा॒ संभृ॑तश्री॒रा प॑प्रौ॒ द्यावा॑पृथि॒वी म॑हि॒त्वा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒षि॒रा। योषा॑। यु॒व॒तिः। दमू॑ना। रात्री॑। दे॒वस्य॑। स॒वि॒तुः। भग॑स्य। अ॒श्व॒ऽक्ष॒भा। सु॒ऽहवा॑। सम्ऽभृ॑तश्रीः। आ। प॒प्रौ॒। द्यावा॑पृथि॒वी इति॑। म॒हि॒ऽत्वा ॥४९.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इषिरा योषा युवतिर्दमूना रात्री देवस्य सवितुर्भगस्य। अश्वक्षभा सुहवा संभृतश्रीरा पप्रौ द्यावापृथिवी महित्वा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इषिरा। योषा। युवतिः। दमूना। रात्री। देवस्य। सवितुः। भगस्य। अश्वऽक्षभा। सुऽहवा। सम्ऽभृतश्रीः। आ। पप्रौ। द्यावापृथिवी इति। महिऽत्वा ॥४९.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 49; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    १. रात्रि में सूर्य तो अस्त हो चुका होता है। सूर्य की किरणों से प्रकाशित हुआ-हुआ चन्द्रमा रात्रि को विभा-[प्रकाश]-वाला करता है। यह 'विभा' हमारे लिए सन्तापशून्य प्रकाश को प्राप्त कराती है, अतः कहते हैं कि (सवितुः देवस्य) = सबके प्रेरक-सबको उठकर कार्य-प्रवृत्त होने की प्रेरणा देनेवाले सूर्य-प्रकाशमय सूर्य के (भगस्य) = ऐश्वर्य का (योषा) = अपने में मेल करनेवाली (रात्री) = यह रात्रिदेवता (महित्वा) = अपनी महिमा [फैलाव] से (द्यावापृथिवी) = सारे द्युलोक व पृथिवीलोक को (आपप्रौ) = भर लेती है-सर्वत्र द्यावापृथिवी में अन्धकार का राज्य हो जाता है। २. यह रात्रि (इषिरा) = एष्टव्या है-सबसे प्रार्थनीय है-चाहने योग्य है। यही थके हुए प्राणी की थकावट को दूर करके उसे पुन: तरोताजा करती है। अथवा अपनी गति से सर्वत्र व्याप्त हो रही है। (युवति:) = सदा यौवनवाली है-सृष्टि के प्रारम्भ से अन्त तक एक-सी ही आती-जाती रहती है। (दमूना:) = सबका दमन करनेवाली है-सबको अभिभूत करनेवाली है। (अश्वक्षभा) = [अश्वान् क्षायति भा दीतिर्यस्याः] इन्द्रियों को अभिभूत करनेवाली दीसिवाली है। रात्रि के समय सब इन्द्रियाँ कार्य से उपरत हो जाती हैं। यह रात्रि (सुहवा) = सुष्टु हातव्य-सबसे पुकारने योग्य है। सबसे चाहने योग्य है, (संभृतश्री:) = यह फिर से हमारे अन्दर श्री का संभरण करने आती है। सब इन्द्रियों को पुन: सशक्त बना देती है।

    भावार्थ - रात्रि सारे आकाश को अन्धकार से आपूरित कर देती है। इसमें सब इन्द्रियाँ थककर सो जाती हैं। यह उनमें पुनः शक्ति भरनेवाली होती है। इसी से यह सबसे चाहने योग्य है।

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