अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 49/ मन्त्र 7
सूक्त - गोपथः, भरद्वाजः
देवता - रात्रिः
छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - रात्रि सूक्त
शम्या॑ ह॒ नाम॑ दधि॒षे मम॒ दिप्स॑न्ति॒ ये धना॑। रात्री॒हि तान॑सुत॒पा य स्ते॒नो न वि॒द्यते॒ यत्पुन॒र्न वि॒द्यते॑ ॥
स्वर सहित पद पाठशम्या॑। ह॒। नाम॑। द॒धि॒षे। मम॑। दिप्स॑न्ति। ये। धना॑। रात्रि॑। इ॒हि। तान्। अ॒सु॒ऽत॒पा। यः। स्ते॒नः। न। वि॒द्यते॑। यत्। पुनः॑। न। वि॒द्यते॑ ॥४९.७॥
स्वर रहित मन्त्र
शम्या ह नाम दधिषे मम दिप्सन्ति ये धना। रात्रीहि तानसुतपा य स्तेनो न विद्यते यत्पुनर्न विद्यते ॥
स्वर रहित पद पाठशम्या। ह। नाम। दधिषे। मम। दिप्सन्ति। ये। धना। रात्रि। इहि। तान्। असुऽतपा। यः। स्तेनः। न। विद्यते। यत्। पुनः। न। विद्यते ॥४९.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 49; मन्त्र » 7
विषय - शम्या
पदार्थ -
१. हे (रात्रि) = रात्रि! तु (ह) = निश्चय से शम्या [शत्रुशमनसमर्था] शत्रुओं के शमन में समर्थ होने से 'शम्या' इस नाम को (दधिषे) = धारण करती है। हे रात्रि! (ये) = जो (मम धना) = मेरे धनों को (दिप्सन्ति) = [दम्भितुमिच्छन्ति] हिंसित करना चाहते हैं, (तान् असु तपा) = उनके प्राणों को सन्तप्त करनेवाली तू इहि-प्राप्त हो। रात्रि में रक्षण की उत्तम व्यवस्था होने से कोई भी चोर आदि हमारे धनों का उपहरण नहीं कर पाते। २. (यः स्तेन:) = जो चोर है (न विद्यते) = हमारे राष्ट्र में वह नहीं रह पाता। ये रक्षक पुरुष चोरों को इसप्रकार दण्डित करें (यत्) = कि (पुन: न विद्यते) = फिर यह चोर रह ही नहीं जाए। राष्ट्र में रक्षण-व्यवस्था व दण्ड-व्यवस्था इसप्रकार की हो कि चोरी आदि अपराध समास ही हो जाएँ।
भावार्थ - राज्य में दण्ड-व्यवस्था व रक्षण-व्यवस्था इसप्रकार उत्तम हो कि चोरी इत्यादि का भय समाप्त ही हो जाए।
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