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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 49 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 49/ मन्त्र 7
    ऋषिः - गोपथः, भरद्वाजः देवता - रात्रिः छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः सूक्तम् - रात्रि सूक्त
    37

    शम्या॑ ह॒ नाम॑ दधि॒षे मम॒ दिप्स॑न्ति॒ ये धना॑। रात्री॒हि तान॑सुत॒पा य स्ते॒नो न वि॒द्यते॒ यत्पुन॒र्न वि॒द्यते॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शम्या॑। ह॒। नाम॑। द॒धि॒षे। मम॑। दिप्स॑न्ति। ये। धना॑। रात्रि॑। इ॒हि। तान्। अ॒सु॒ऽत॒पा। यः। स्ते॒नः। न। वि॒द्यते॑। यत्। पुनः॑। न। वि॒द्यते॑ ॥४९.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शम्या ह नाम दधिषे मम दिप्सन्ति ये धना। रात्रीहि तानसुतपा य स्तेनो न विद्यते यत्पुनर्न विद्यते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शम्या। ह। नाम। दधिषे। मम। दिप्सन्ति। ये। धना। रात्रि। इहि। तान्। असुऽतपा। यः। स्तेनः। न। विद्यते। यत्। पुनः। न। विद्यते ॥४९.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 49; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    रात्रि में रक्षा का उपदेश।

    पदार्थ

    (शम्या) शान्तिवाली, (नाम) यह नाम (ह) निश्चय करके (दधिषे) तू धारण करती है, (ये) जो [चोर] (मम) मेरे (धना) धनों को (दिप्सन्ति) हानि पहुँचाना चाहते हैं। (रात्रि) हे रात्रि ! (असुतपा) [उनके] प्राणों को तपानेवाली तू (तान्) उनको (इहि) पहुँच, (यत्) जिससे (यः स्तेनः) जो चोर है, (न विद्यते) वह न रहे, (पुनः) फिर (न विद्यते) वह न रहे ॥७॥

    भावार्थ

    जो चोर डाकू आदि रात्रि में हानि करें, उनको लोग दण्ड देकर शान्ति स्थापित करें और चोरों को न रहने दें ॥७॥

    टिप्पणी

    ७−(शम्या) शमु उपशमे-यत्। शान्तियुक्ता (ह) निश्चयेन (नाम) नामधेयम् (दधिषे) दधातेर्लेडर्थे लिट्। धारयसि (दिप्सन्ति) दम्भु दम्भे-सन्। दम्भिन्तुं हिंसितुमिच्छन्ति (ये) चोराः (धना) धनानि (रात्रि) (इहि) प्राप्नुहि (तान्) चोरान् (असुतपा) असु+तप सन्तापे-कप्रत्ययो मूलविभुजादित्वात्, टाप्। असूनां प्राणानां सन्तापयित्री (यः) (स्तेनः) (न) निषेधे (विद्यते) स वर्तते (यत्) यस्मात् (पुनः) पश्चात् (न) निषेधे (विद्यते) ॥

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    भाषार्थ

    (रात्रि) हे रात्रि! तू (ह) निश्चय से (शम्या नाम) शत्रुओं को शान्त कर देनेवाली, उनका वध करनेवाली है, (दधिषे) इस प्रकार हमारा तू धारण-पोषण करती है। (ये) जो (मम) मेरे (धना=धनानि) धनों को (दिप्सन्ति) दम्भ द्वारा हथियाना चाहते हैं, (तान्) उन्हें (असुतपाः) उनके प्राणों को तपानेवाली होकर, (इहि) प्राप्त हो। ताकि (यः) जो कोई भी (स्तेनः) चोर हो, वह (न विद्यते) हमारे मध्य में न रहे। (यत्) यदि (पुनः) फिर, अर्थात् दोबारा चोर बने, तो वह (न विद्यते) जीवित न रहे। अथवा— हे रात्रि! तू ‘शम्या’ नाम धारण करती है, चूंकि तू स्वयं शान्तस्वरूपा है, और सबको शान्ति पहुँचाती है। जो मेरे धनों को दम्भ द्वारा हथियाना चाहते हैं, उनके भी प्राणों को न तपाती हुई, अर्थात् रात्री में शयन द्वारा शान्त करती हुई, तू उन्हें प्राप्त हो। सबको ऐसा शान्त कर दे कि रात्री में कोई चोर भी न रहे, कोई चोरी न करे। यदि एक बार चोरी करे भी, तो वह बार-बार चोरी न करे, शान्त सोया रहे।

    टिप्पणी

    [शम्या=शम्नाति वधकर्मा (निघं० २.१९)। मन्त्र द्वारा निर्देश मिलता है कि चोरों को अपनी बस्ती में रहने न देना चाहिए। यदि वे दोबारा चोरी करें, तो उन्हें मृत्युदण्ड देना चाहिए। अथवा [शम्या=शम् (शान्ति)+या (प्रापणे)। असुतपाः=अ+सु+तपाः।]

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    विषय

    शम्या

    पदार्थ

    १. हे (रात्रि) = रात्रि! तु (ह) = निश्चय से शम्या [शत्रुशमनसमर्था] शत्रुओं के शमन में समर्थ होने से 'शम्या' इस नाम को (दधिषे) = धारण करती है। हे रात्रि! (ये) = जो (मम धना) = मेरे धनों को (दिप्सन्ति) = [दम्भितुमिच्छन्ति] हिंसित करना चाहते हैं, (तान् असु तपा) = उनके प्राणों को सन्तप्त करनेवाली तू इहि-प्राप्त हो। रात्रि में रक्षण की उत्तम व्यवस्था होने से कोई भी चोर आदि हमारे धनों का उपहरण नहीं कर पाते। २. (यः स्तेन:) = जो चोर है (न विद्यते) = हमारे राष्ट्र में वह नहीं रह पाता। ये रक्षक पुरुष चोरों को इसप्रकार दण्डित करें (यत्) = कि (पुन: न विद्यते) = फिर यह चोर रह ही नहीं जाए। राष्ट्र में रक्षण-व्यवस्था व दण्ड-व्यवस्था इसप्रकार की हो कि चोरी आदि अपराध समास ही हो जाएँ।

    भावार्थ

    राज्य में दण्ड-व्यवस्था व रक्षण-व्यवस्था इसप्रकार उत्तम हो कि चोरी इत्यादि का भय समाप्त ही हो जाए।

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    विषय

    ‘रात्रि’ परम शक्ति का वर्णन।

    भावार्थ

    हे रात्रि ! राजशक्ते ! तू (शम्या ह नाम) अर्थात् शत्रुओं को शमन करने से ‘शम्या’ इस प्रकार का नाम(दधिषे) धारण करती है। इसलिये (ये) जो पुरुष (मम) मेरे (धना) धनों को (दिप्सन्ति) बलात् मुझ से छीन लेना चाहते हैं, हे (रात्रि !) सबों पर विराजमान ! एवं दुष्टों को दण्ड देनेहारी ! तू (असुतपा) शत्रुओं के प्राणों को संतप्त करने वाली होकर (इंहि) प्राप्त हो (यत्) जिससे जो (स्तेनः) चोर या लुटेरा पुरुष है वह (न विद्यते) राष्ट्र में न रह जाय और (यत्) जिससे (पुनः) फिर दुबारा चोर (न विद्यते) न पैदा हों, या फिर सदा के लिये राष्ट्र में चोर न रहें।

    टिप्पणी

    (द्वि०) ‘धनाः’ इति वहुत्र। (तृ०) रात्रि हिनानः, रात्रिहितान, ‘रात्रीहितानः’ इत्यादि नाना पाठाः। (प्र०) ‘रम्याह’ इति ह्विटनिकामित:। ‘षम्याह नाम तरुपे विमृच्छन्ति योजनात्।’ इति पैप्प० सं०। रात्रि। हिता। [ अथवा—हि। ता।] नः। सुता। इति ह्विटनिकामितः पदपाठः। ‘अनुतपा’ इति ह्विटनिकामित। (च० प०) ‘यथा स्ते–’, ‘यथा पु-’ इति ह्विटनिकामितः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोपथो भरद्वाजश्च ऋषी। रात्रिर्देवता। १-५, ८ त्रिष्टुभः। ६ आस्तारपंक्तिः। ७ पथ्यापंक्तिः। १० त्र्यवसाना षट्पदा जगती। दशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Ratri

    Meaning

    O Night, you bear the name ‘Shamya’, harbinger of peace and rest after exertion and success. Pray go to those who covet my wealth and wish to deceive and deprive me of my wealth, honour and excellence, visit them as tormentor of their mind and life energy so that whoever is a thief may survive but never revive as thief again.

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    Translation

    You have indeed, assumed the name “Ramya, (Gueller). Whoso want to spoil my riches, may you. O night come to them as a burner of their lives. Whosoever is a thief, may he not exist; may he never exist again.

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    Translation

    This night assumes the name Shamya, that which is full of quietness and let this night inflaming the vital breath reach them who steal away my possessions. So that there be not he who is thief and also not a thief anymore.

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    Translation

    O Royal power, the peace-showerer is the name that thou bearest. Let those, who want to snatch away my wealth, find the end of their lives at thy hands, so that no thief may exist, nor again come into existence.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ७−(शम्या) शमु उपशमे-यत्। शान्तियुक्ता (ह) निश्चयेन (नाम) नामधेयम् (दधिषे) दधातेर्लेडर्थे लिट्। धारयसि (दिप्सन्ति) दम्भु दम्भे-सन्। दम्भिन्तुं हिंसितुमिच्छन्ति (ये) चोराः (धना) धनानि (रात्रि) (इहि) प्राप्नुहि (तान्) चोरान् (असुतपा) असु+तप सन्तापे-कप्रत्ययो मूलविभुजादित्वात्, टाप्। असूनां प्राणानां सन्तापयित्री (यः) (स्तेनः) (न) निषेधे (विद्यते) स वर्तते (यत्) यस्मात् (पुनः) पश्चात् (न) निषेधे (विद्यते) ॥

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